दुनिया में हजारों लोग प्रतिदिन मरते हैं, लेकिन क्या सभी के मरने का
दुःख हमें होता है?
किसी की अकाल मृत्यु सुनकर दया भावना के कारण क्षणिक
दुःख-संवेदना हो,
इसे छोड दीजिए तो बाकी दूसरा कोई मृत्यु को प्राप्त होता है
तो दुःख नहीं होता है,
जिसको अपना मान लिया हो, वैसा कोई मृत्यु को प्राप्त
हो तो दुःख होता है। तब सोचिए कि इस दुःख को उत्पन्न करने वाला मरण है या ममत्त्व? जहां
ममत्त्व नहीं है,
वहां दयाभावना प्रकट हो अथवा कोई उपकारी चला जाए और इससे
दुःख हो, यह बात पृथक है। किन्तु, इसके अतिरिक्त तो जिसके प्रति ममत्त्व
नहीं है, उसकी मृत्यु से दुःख नहीं होता है, यह बात निश्चित है।
पुत्र-पुत्री का मरण,
माता-पितादि का मरण, संबंधियों का मरण, मोह
के घर का दुःख उत्पन्न करता है। कारण कि यहां ममत्व बैठा हुआ है। तब इस दुःख में
मुख्य कारण मरण है या ममत्व? यह ममत्व निकल जाए तो ऐसे मरण के कारण भी
मोह के घर का दुःख उत्पन्न नहीं होगा, यह सुनिश्चित बात है। इसी
प्रकार स्वयं के शरीर का ममत्व भी दूर हो जाए तो? स्वयं के शरीर पर
आपत्ति आए, स्वयं का शरीर रोग से घिर जाए, ऐसे समय में समभाव को स्थिर
रखने के लिए सहनशीलता की विशेष अपेक्षा रहती है। सामर्थ्यहीन जीव वैसे अशुभोदय के
समय में असमाधि को प्राप्त हो जाते हैं, यह असंभव वस्तु नहीं है।
सच्चा साधु स्वयं के शरीर को भी पर मानने वाला होता है। इस कारण वह प्रत्येक
स्थिति में समभावजनित सुख का अनुभव कर सकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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