लोकवाद की शरण में रहने से धोबी के कुत्ते जैसी दशा होती है। ‘धोबी
का कुत्ता न घर का न घाट का’, उसी प्रकार लोकप्रवाद की शरण में रहने
वाला स्वयं न तो अपना सुधार कर सकता है और न दूसरों का सुधार कर सकता है, उसकी
तो दोनों ओर अवगति ही होती है। लोक की गति हवा जैसी है, लोग
हवा के प्रवाह के साथ चलते हैं। पवन एक दिशा में नहीं बहता है, उसी
प्रकार लोग भी एक दिशा का आग्रह नहीं रखते हैं। वे तात्कालिक रूप से सुविधावादी
होते हैं। उनको जिस प्रकार का निमित्त मिल जाता है, उसी में ढल जाते हैं।
वे प्रायः अनुस्रोतगामी होते हैं और बहाव के साथ बहते हैं। लोकप्रवाद प्रमुखतः
हिताहित और तथ्यातथ्य आदि के विवेक पर निर्भर नहीं होता है। इसीलिए कहा जाता है कि
केवल लोकवाद के ऊपर से किसी वस्तु का निष्कर्ष निकालना, यह
मूर्खता है। लोक में भी कहा जाता है कि ‘दुनिया झुकती है, झुकाने
वाला चाहिए’,
इसी कारण से इस दुनिया में भयंकर दुराचारी भी आडम्बर से
पूज्य माने जाते हैं। दम्भी कुशल हो और उस प्रकार के पुण्य वाला हो तो वह लगभग
सम्पूर्ण दुनिया को भी बेवकूफ बना सकता है। इसलिए हवा के साथ नहीं, अपने
विवेक से जिनाज्ञा को सामने रखकर चलें।
दशवैकालिक सूत्र की चूलिका में प्रभु महावीर की वाणी है-
अणुसोय-पट्ठिए+बहुजणम्मि पडिसोयलद्धलक्खेणं ।
पडिसोयमेव अप्पा,
दायव्वो होउकामेणं ।।
अणुसोयसुहो लोगो,
पढिसोओ आसवो सुविहियाणं ।
अणुसोओ संसारो,
पडिसोओ तस्स उत्तारो ।।
तम्हा आयारपरक्कमेण संवर-समाहि-बहुलेणं ।
चरिया गुणा य नियमा य,
होंति साहूण दट्ठववा ।।
‘(नदी
के जल-प्रवाह में गिर कर प्रवाह के वेग से समुद्र की ओर बहते हुए काष्ठ के समान)
बहुत-से लोग अनुस्रोत (विषय प्रवाह के वेग से संसार-समुद्र) की
ओर प्रस्थान कर रहे (बहे जा रहे) हैं, किन्तु जो मुक्त होना चाहता
है, जिसे प्रतिस्रोत (विषय-भोगों के प्रवाह से विमुख-विपरीत हो कर संयम के प्रवाह)
में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, उसे अपनी आत्मा को प्रतिस्रोत
की ओर (सांसारिक विषय भोगों के स्रोत से प्रतिकूल) ले जाना चाहिए।’
‘अनुस्रोत
(विषय-विकारों के अनुकूल प्रवाह) संसार (जन्म-मरण की परम्परा) है और प्रतिस्रोत
उसका उत्तार (जन्म-मरण के पार जाना) है। साधारण संसारी जन को अनुस्रोत चलने में
सुख की अनुभूति होती है,
किन्तु सुविहित साधुओं के लिए प्रतिस्रोत आस्रव (इन्द्रिय-विजय)
होता है।’
‘इसलिए
(प्रतिस्रोत की ओर गमन करने के लिए) आचार (-पालन) पराक्रम करके तथा संवर में
प्रचुर समाधियुक्त हो कर,
साधुओं को अपनी चर्या, गुणों (मूल-उत्तर गुणों) तथा
नियमों की ओर दृष्टिपात करना चाहिए।’
प्रवाह के साथ
गेंडे-भेडें चलती है, केवल मरी मछलियां ही बहाव के साथ बहती हैं। धारा के साथ तो हर कोई सुविधावादी
मूर्ख चलता-बहता है। महापुरुष धारा के प्रवाह में नहीं बहते। धारा के विपरीत चल कर
अपना एक अलग मुकाम बनाने वाले, अपनी अलग पहचान बनाने वाले बिरले
ही महापुरुष होते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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