जिस आत्मा को पाप से भय उत्पन्न होगा, वह ‘इसमें
पाप, उसमें पाप’
ऐसा ज्ञानी पुरुषों के द्वारा कही हुई बातों को सुनने से ऊब
नहीं जाता है,
अपितु आनंदित होता है। हृदय में जो भय पैदा हुआ होगा तो, ‘पाप!
यह आचरण करने लायक वस्तु नहीं है’, ऐसा वास्तविक निर्णय हो जाने के बाद, उस
आत्मा को पाप करना भी पडे तो भी वह रसिकता के साथ नहीं करता। पाप होने के बाद भी
मन में पश्चाताप करता है। इसके कारण से उसका बंध तीव्र रूप से नहीं होता है और उस
पाप से छूटते उसे देर भी नहीं लगती है।
इसीलिए पाप हो जाए तो उसके लिए आत्मा की निन्दा करना सीखना चाहिए। पर-निन्दा
से बचना चाहिए और स्व-निन्दा (आत्म-निन्दा) को बढाना चाहिए, प्रोत्साहित
करना चाहिए। ऐसा करने पर ही कर्मों की निर्जरा होगी, कषाय समाप्त होंगे, आत्मा
पाप से पीछे हटेगी,
धर्म को पाने की योग्यता आएगी, शान्ति
की ओर गति होगी,
आत्मा की निर्मलता, सरलता और पवित्रता बढेगी जो
आत्मा को मोक्ष मार्ग का,
मुक्ति का पथिक बनाएगी। इसलिए आत्म-निन्दा करना सीखें। यह
आत्म-निन्दा सिर्फ औपचारिकता भर न हो, केवल लोक-दिखावा भर न हो, अंतःकरण
से हो, तभी इसकी सार्थकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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