‘मुझे
तो जीवन में अपनी आत्मा का कल्याण करना है और कल्याण करने का एकमात्र मार्ग अनंत
उपकारी श्री जिनेश्वर देवों की आज्ञा की आराधना करना है।’ हृदय
में ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए और आज्ञा की आराधना में मन-वचन-काया को जोडने के लिए
प्रयत्नशील होना चाहिए। यह दशा होगी तो कर्तव्य से च्युत नहीं होंगे और किसी भी
पौद्गलिक लालसा के अधीन नहीं बनेंगे। भक्ष्याभक्ष्य के सेवन से बचेंगे, आचार, विचार
और व्यवहार शासन के अनुरूप होगा।
इतनी सावधानी रखने पर भी किसी तीव्र पापोदय से आत्मा का पतन हो भी जाए, तो
भी कालांतर में उस आत्मा का उत्थान हुए बिना नहीं रहता, उस
आत्मा का मोक्ष निश्चित हो जाता है और जो आराधना की हो वह तो निष्फल जाती ही नहीं, अपितु
कल्याणकारी ही होती है। इसलिए यही ध्येय रखना चाहिए और ऐसे प्रयत्न करने चाहिए, जिससे
सुख पूर्वक आराधना हो सके। उसके लिए पतन के संयोगों से बचने का प्रयत्न भी लगातार
रखना चाहिए। पौद्गलिक लालसा से यथासंभव बचते रहना चाहिए। यश की कामना, मान-सम्मान
प्राप्त करने की इच्छा भी पौद्गलिक लालसा है। गीतार्थ महात्मा इस प्रकार की लालसा
से भी परे ही रहेंगे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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