अर्थ और काम का
ज्ञान सिखाने की आवश्यकता नहीं होती। कपट, प्रपंच, झूठ, चोरी, लूट-खसोट और बदमाशी
सिखाने के लिए कहीं भी पाठशालाएं नहीं हैं और न इनको सिखाने के लिए कहीं प्रवचन
होते सुने हैं। परन्तु, इन्हें सिखाने वाले कदम-कदम पर मिल जाएंगे। दूसरे की
जेब काटकर धन कैसे निकालना, यह सिखाना कठिन नहीं है। ‘दूसरों को कैसे देना?’ यह सिखाना ही कठिन
है। संसार का प्रलोभन लक्ष्मी का है अथवा दान देने का? लेने की भावना तो सब
में है, परन्तु देने की भावना कितनों में है? लेने वाले तो
सामान्यतया सभी हैं, पर देने वाले तो विरले ही होते हैं। दुराचारी अनेक
हैं, पर सदाचारी बहुत कम हैं।
अपनी तेज आँखें क्या
कार्य करती हैं? जो कुछ देखती हैं, उसे लेने की इच्छा
करती हैं। कान क्या कार्य करते हैं? जो कुछ अच्छा सुनते
हैं, उसे मन में धारण करते हैं। आँखों और कानों का यह सदुपयोग है या दुरुपयोग? इस विचार ने सुख
दिया या दुःख बढाया? इसने आत्मा को सुमार्ग पर लगाया कि कुमार्ग पर? देखा और इच्छा हुई, मुझे यह कब मिलेगा, यह भावना उत्पन्न
हुई। उसके परिणाम स्वरूप प्रवृत्ति अच्छी है या बुरी? जितनी सुन्दर, विषयरस-पोषक वस्तुओं
को देखें, वे सब मुझे प्राप्त हो जाएं, ऐसी भावना जागृत
होती जाती है और फिर उन्हें प्राप्त करने के लिए जी-तोड परिश्रम करे तो क्या दशा
होगी?
संसार में जानते हैं
थोडे लोग, जानने वाले भी पंगु अनेक हैं। जो कार्य करने में
सक्षम हैं, उनमें अधिकांश निरे मूर्ख हैं, परन्तु जानते हैं और
करते हैं, ऐसे कितने हैं? कोई विरले ही हैं।
सभी दार्शनिकों ने बताया है कि ‘मानव जीवन सर्वोत्तम है’। परन्तु, वह किस तरह
सर्वोत्तम है; यह बताने के लिए असंख्य ग्रन्थ लिखने पडे। मनुष्य
होते हुए भी राक्षस जैसे कार्य करने वालों की कमी नहीं है। यदि राक्षस जैसे कार्य
किसी को नहीं आते तो पशु जैसे कार्य करने तो सबको आते हैं। मनुष्य जैसा कार्य करने
वाले कितने हैं?
‘काले सिर वाला मानव
भला क्या नहीं कर सकता?’ इस वाक्य के नाम पर संसार में जो अत्याचार हो रहे हैं, उनकी तो सीमा ही
नहीं है। इस वाक्य का उपयोग भी होता है, उस पर अमल भी होता है, पूर्णतया पार भी ले
जाते हैं, परन्तु यदि उल्टे रास्ते पर हो तो उसका क्या मूल्य? ये शब्द
वधिकों-जल्लादों के समक्ष नहीं कहे जाते। यदि कदाचित वह कह दे तो कहना पडेगा कि ‘तूं काले सिर वाला
तो है, लेकिन मानव नहीं है’। यदि मानव को सचमुच
मानव बनाना हो तो काले सिर को गौण करो। यदि उसमें मानवता होगी तो वह सिर झुकाएगा, नतमस्तक होगा और
मानवता निकल गई तो सिर टकराएगा। इसलिए जरूरी है कि इंसान में इंसानियत बनी रहे, मानव में मानवता बनी
रहे; इसके लिए धर्मगुरु की खासतौर से आवश्यकता है।-सूरिरामचन्द्र
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