यदि बालक के मन को
कोई सुसंस्कारों के ढाँचे में ढालने वाला हो तो वह ढल जाता है। यदि वह कुमार्ग पर
चलता है तो पालक का दोष और सुमार्ग पर चले तो पालक का उपकार मानते हैं।
वृद्धावस्था भी अमुक अंशों में पराधीन है। केवल युवावस्था में ही स्वाधीनता है।
शक्ति-सम्पन्न मनुष्य यदि उचित दिशा में अपनी शक्ति न लगाए, इन्द्रियों पर
नियंत्रण नहीं रखे, बात-बात में इन्द्रियों के आधीन होता रहे तो उसका
उद्धार होना कठिन है।
आज अधिकांश यही दशा
है कि युवक के बडे हो जाने पर माता-पिता उसे कुछ कह नहीं सकते और यदि कोई कह दे तो
युवक उसे सहन नहीं कर सकते। आज युवकों के पतन-पराभव, युवकों में बढ रही
स्वच्छंदता और स्वैच्छाचारिता के कई कारण है, उनमें सबसे अहम कारण
है इन्द्रिय-आकर्षण, इन्द्रियों की गुलामी। अतः युवावस्था का सदुपयोग यदि
करना है, सृजन में उसे लगाना है, सफलता यदि प्राप्त
करनी है तो सबसे पहले इन्द्रियों पर अंकुश जरूरी है। कारण कि आज इन्द्रियों के
भटकाव, इन्द्रिय आकर्षण, इन्द्रिय लोलुपता के
कई साधन संसार में उपस्थित हो गए हैं और सारा वातावरण प्रदूषित होता जा रहा है, जहां युवा-शक्ति का
पतन हो रहा है।
युवक को यह समझ लेना
चाहिए कि ‘ये इन्द्रियां मेरी हैं, इन्हें मैं जिस योग्य राह पर ले जाना चाहूं, वहीं ये जानी चाहिए।’ ऐसा न मानकर यदि वह
अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रखता है तो उसकी विकट दशा तय है। उसकी दशा फिर कई बार उस
अंधे के समान हो जाती है, जो स्वयं तो देख नहीं सकता है और दूसरा कोई सन्मार्ग
पर लेजाना चाहे तो वह जाता नहीं है। अतः युवावस्था में जब तक इन्द्रियों पर
पूर्णतया नियंत्रण नहीं हो जाए, तब तक उनका सदुपयोग के बदले दुरुपयोग होने की ही
प्रबल संभावना रहती है।
साधन प्राप्त करना
जितना कठिन है, साधन का सदुपयोग करना उससे भी अधिक कठिन है। यौवन से
यदि सृजन करना है, सफलता प्राप्त करनी है, तो फिर उसके
दुरुपयोग से काम नहीं बनेगा, अपनी शक्ति का, अपनी इन्द्रियों पर
पूरी तरह अंकुश रखते हुए उनका सदुपयोग करना होगा। जो लोग जवानी में दीवाने बनकर
कर्तव्याकर्तव्य का होश भूल जाते हैं, वे अपना जीवन तो
नष्ट करते ही हैं, अन्य अनेक जीवों के जीवन भी मिट्टी में मिला देते
हैं।
गहन युवावस्था को
यदि अपवाद रहित व्यतीत करना है तो योग्य सज्जनों के सम्पर्क में रहकर, केवल अन्तर्नाद के
भरोसे उछलकूद छोडकर योग्य व्यक्ति की निश्रा स्वीकार करनी पडेगी। इस तरह योग्य की
निश्रा अंगीकार कर के जो युवक अपनी सृष्टि का सृजन करेंगे, वे अपनी तथा अपने
सहयोगियों की आत्मा को डूबने से बचाकर अपना व दूसरों का कल्याण कर सकेंगे।-सूरिरामचन्द्र
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