प्राणी मात्र सुख
चाहता है, इसमें कोई दो राय नहीं है। संसार की शानौशोकत और
राग-रंग में सुख नहीं है; दुःख रहित, सम्पूर्ण और शाश्वत
सुख धर्म में ही है। पाप से दुःख और धर्म से सुख होता है, यह भी तय है। तो हम
इस पर विचार करें कि जिससे सुख मिलता है, वह धर्म कौनसा है? आर्यावृत्त के
सर्वोत्तम आदर्शों के अनेक प्रतिबिम्बों में से एक सुन्दर प्रतिबिम्ब हृदय में
धारण कर एक कवि ने संसार के प्राणियों को संक्षेप में सभी धर्मों का सार तत्त्व
समझाने का प्रयास किया है-
श्रूयतां
धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।।
अर्थात् ‘धर्म का सर्वस्व
जिसमें समाया है, ऐसे धर्म का सार सुनिए और सुनकर हृदय में उतारिए कि
अपनी आत्मा को जो दुःखदायी लगे, वैसा आचरण दूसरों के साथ मत करिए।’
अपमान, तिरस्कार, मारपीट, गाली क्या आपकी
आत्मा को अच्छी लगेगी? कोई बलवान मनुष्य यदि आपको सताए, आपका गला दबाए तो
उससे आपको दुःख होगा या हर्ष? दुःख ही होगा। अतः मन में यह पक्का करना है कि ‘जितनी वस्तु मुझे
दुःख रूप लगे, उनका मैं दूसरों के प्रति आचरण न करूं।’ इतना यदि प्रत्येक
व्यक्ति सीख जाए तो संसार में कोई झगडा ही न रहे। यही उत्तम कोटि का धर्म है।
आप में मात्र इतना
विवेक और विचार आ जाए कि ‘मेरा धन कोई चुरा ले तो मुझे कष्ट होगा, अतः मुझे भी किसी का
धन नहीं चुराना है। मेरी अमानत कोई छीन ले या हडप कर जाए तो मुझे बुरा लगेगा, अतः मैं किसी की
अमानत हडपने का विचार ही न करूं, मेरे साथ कोई छल-षडयंत्र करे तो मुझे बुरा लगेगा, अतः मैं किसी के साथ
छल-षडयंत्र न करूं, मुझे कोई सताए तो मुझे दुःख होगा, अतः मैं किसी को
नहीं सताऊं, मेरी कोई हंसी उडाए, उपहास करे तो मुझे
अच्छा नहीं लगेगा, अतः मैं भी किसी की हंसी न उडाऊं, किसी का उपहास न
करूं’, तो सारी समस्या ही समाप्त हो जाए। इसी का नाम मनुष्यत्व और मानवता है। यदि आप
में यह विवेक नहीं है तो आप में मानवता नहीं है। यदि इस प्रकार का विवेक और विचार
आ जाए तो अनीति, हिंसा, असत्य, चोरी, दूसरों के घर में
बलात् घुसना, दूसरों का धन छीनना, क्रोध अथवा अक्कडपन
रहेगा ही नहीं।
जो मनुष्य स्वार्थ, रस, लालसा, मौज-शौक आदि के लिए
हजारों मनुष्यों, जीवों को कष्ट पहुंचाने में हिचकिचाते, लजाते नहीं हैं और
ऐसी हिंसा में ही जिन्हें आनंद आता है, वे वास्तव में तो
कभी सुखी नहीं हो सकते। ‘मैं कभी भी, किसी हालत में, किसी के प्रति
प्रतिकूल आचरण नहीं करूंगा’, यह बात पूरी तरह पालन करने की भावना जिस दिन आप में आ
जाएगी, समझिए सच्चे सुख का प्रारम्भ हो गया।-सूरिरामचन्द्र
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