भारतवर्ष में एक ओर
गरीबी और भूखमरी के हालात हैं, वहीं दूसरी ओर आबादी का एक चौथाई अभिजात्य वर्ग सिर्फ
चाय-पान-अभक्ष्य व शराब आदि के सेवन पर ही इतना पैसा बर्बाद कर देता है कि उसमें
एक परिवार आठ परिवारों का पेट पाल सकता है। कई लोग इतना और ऐसा खाते हैं कि उन्हें बदहजमी होती है, जिसे पचाने के लिए वे डाईजिन की गोलियां और
नाना प्रकार के चूर्ण खाते हैं, यह सीधा-सीधा सामाजिक अपराध
है। यदि यह बर्बादी रुक जाए तो गरीबी और भूखमरी के हालात तो इस देश में रह ही
नहीं सकते। अकाल और बेकारी के नाम पर चिल्लाना और निरर्थक व्यय बन्द न करके उनमें
वृद्धि करते रहना, यह कहां की परोपकार-वृत्ति है? उद्धार की बातें
करने वाले यदि वाकई देश की चिन्ता करते हैं तो क्यों नहीं जीवन को मर्यादित, नियमित और संयमित
बनाते हैं?
‘भारत में पूरी तरह
शराबबंदी, अभक्ष्य पर रोक, धूम्रपान पर रोक, यहां तक कि बहुत चाय
नहीं पीना, पान नहीं खाना, अश्लीलता और समाज को
विकृत करने वाले सिनेमा आदि नहीं देखना’; इन उपकार करने के
लिए निकलने वालों ने ऐसे सुधार किए हैं क्या? जूते अधिक मूल्य के
क्यों? इन सब वस्तुओं पर होने वाले अपव्यय रोककर जीवन को
स्वच्छन्दता से बचाया जाए तो शान्ति दौडी-दौडी आपके चरण चूमेगी।
आप सब
रोटी-कपडा-मकान का नाम लेकर चिल्ला रहे हैं, परन्तु यह मुसीबत तो
उन स्वच्छन्दी लोगों की देन है। अनाज-पानी बिना नहीं चलता, यह तो ठीक है; परन्तु शराब, अभक्ष्य, चाय, पान, सिनेमा, होटल के बिना भी
नहीं चलता; यह कौन मानेगा, क्यों मानेगा? मौज-शौक और राग-रंग
में कितना व्यय हो रहा है? ‘यदि नाटक-सिनेमा न देखें तो सप्ताह भर की थकान कैसे
उतरेगी?’ ‘शाम को शराब न पीएं तो दिनभर की थकान और तनाव कैसे
दूर होगा और कैसे रात को ठीक से नींद आएगी?’ ऐसी गलत मान्यताएं
आज पनप रही हैं। जरा सोचिए कि यह मनुष्य जीवन है। थोडा अपनी दशा पर विचार करिए।
भोजन करने बैठते हो तो एक बार, दो बार अथवा तीन बार भोजन करने के पश्चात बाहर खाने
की आवश्यकता क्या? जहां-तहां क्यों खाएं? होटल में ताजी
खाद्य-सामग्री होती है क्या? वहां तो बासी, सडा-गला सब चलता है।
रात्रि की बची हुई सामग्री कितने होटल वाले फेंक देते हैं? अधिकांशतः तो दूसरे
दिन ताजा सामग्री के साथ उसे मिलाते ही हैं। वहां उपयोग में लिया जाने वाला आटा-मैदा
कहां से आता है? उसका गेहूं सडा-गला तो नहीं था? उसमें कंकर तो नहीं
थे? उसमें लट-धनेरिए-जीव तो नहीं थे?
रोग क्यों बढे? कभी इसकी गहराई में
गए हैं? पुराने समय के खान-पान और बीमारियों से आज के खान-पान
और बीमारियों की कभी तुलना की है? डॉक्टर बढे हैं, परन्तु बीमारियां
घटी है या बढी हैं? इसका मूल कारण क्या है, कभी गम्भीरता से
इसकी गवेषणा की है? सोचिए जरा !-सूरिरामचन्द्र
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