आत्मा परम विशुद्ध
तथा अलिप्त है, ऐसी बातें करने वाले शुष्क अध्यात्मवादियों के भुलावे
में भी मत आना। आत्मा शुद्ध है, ब्रह्म स्वरूप है, पर कब? यह समझने की
आवश्यकता है। आत्मा यदि वर्तमान समय में भी परम शुद्ध है तो इस देह रूपी दुर्गन्ध
युक्त कोठरी में क्यों पडी है? इस कोठरी की मलिनता किसी से छिपी नहीं है, यह कोठरी अशुचि
पदार्थों का ही भण्डार है। ऐसी कोठरी में पराधीन रहना ही सूचित करता है कि आत्मा
मूल स्वरूप में शुद्ध होते हुए भी इस समय वह कहीं अन्यत्र फंसी हुई है। आत्मा की
फंसावट प्रत्यक्ष दिखाई देते हुए भी इस दशा में आत्मा को परम शुद्ध मानने की बातें
करना तत्त्वज्ञानियों की दृष्टि से मूर्खता है।
हम इन्कार नहीं करते
कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप स्फटिक के समान निर्मल है। लेकिन, यदि वह लोह-अग्नि के
समान जड कर्मों से संयुक्त है, कर्मों से आबद्ध है, तो वह आत्मा शुद्ध
होते हुए भी अशुद्ध है। जड कर्मों से संबंध हटे तभी वह अपने मूल शुद्ध स्वरूप में
आ सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा स्वरूप से तो शुद्ध और निर्मल है, यह बात सत्य है, परन्तु वर्तमान समय
में उसकी दशा ऐसी नहीं है, यह भूलना नहीं चाहिए। आत्मा को अपने मूल स्वरूप में
लाना, उसे निर्मल बनाना, यही हमारा लक्ष्य है और यही परम शान्ति प्राप्त करने
का मार्ग है। जड के संसर्ग से अलग हुए बिना अथवा अलग होने की भावना के बिना आत्मा
में शान्ति उत्पन्न होना स्वप्न में भी संभव नहीं है। सम्पूर्ण और शाश्वत शान्ति
तो आत्मा को तभी प्राप्त होगी, जब वह जड के संयोग की अशुद्धि से सर्वथा मुक्त हो
जाएगी; परन्तु उससे पूर्व भी यदि आत्मा सुयोग्य बन जाए तो
सच्चे समभाव के योग से प्राप्त होने वाली अनुपम शान्ति का इस संसार में भी अनुभव
कर सकती है।
आज सारी दौड संसार
की जड वस्तुओं की प्राप्ति कर शान्ति को तलाशने में लगी हुई है। लेकिन, जड वस्तुओं में चिर
शान्ति, अक्षय शान्ति और अक्षय सुख, परम आनंद कहां से
मिलेगा? ऐसी आत्म-शान्ति के केवल दो ही मार्ग हैं-
- आत्मा के साथ घुले-मिले जड के संयोग से सर्वथा अलग होना।
- जड के संयोग से आत्मा को जब तक सर्वथा मुक्त न कर सकें, तब तक जड के संयोग से अलग होने की भावना से अलग होने की क्रिया जारी रखनी।तात्पर्य यह है कि या तो इस संयोग से सर्वथा अलग हो जाओ अथवा मुक्त होने की भावना एवं प्रयास जारी रखो। जिस आत्मा में जड के संयोग से सर्वथा मुक्त होने की भावना प्रकट होती है, उस आत्मा में ‘समस्त विश्व का कल्याण हो, सब प्राणी परहित रत हों, समस्त दोषों का नाश हो और सर्वत्र लोक सुखी हो’, ये चार भावनाएं अवश्य उत्पन्न होती है और जिसमें जितने प्रमाण में ये भावनाएं उत्पन्न होती हैं, वह उतने ही प्रमाण में सच्ची शान्ति का अनुभव करता है।-सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें