‘समस्त विश्व का
कल्याण हो, सब प्राणी परहित रत हों, समस्त दोषों का नाश
हो और सर्वत्र लोक सुखी हो’, इन चारों भावनाओं में जो रमण करता है, इन्हें आत्मसात् कर
के चलता है, जिसके जीवन से ये चार भावनाएं प्रतिबिम्बित होती हैं, उसे सदा शान्ति ही
मिलती है। अन्यथा शान्ति कोई ऐसा रस नहीं है कि जिसे घोलकर पी लिया जाए। जिस आत्मा
में दूसरों का सुख देखने की शक्ति नहीं, जो दूसरों का सुख, दूसरों की खुशी, दूसरों की शान्ति
बर्दाश्त नहीं कर सकता, जिसमें दूसरों के प्रति ईर्ष्या है, दूसरों की खुशी से
जलन है, उसे शान्ति कहां से मिलेगी?
आज लोगों की
मनोवृत्ति ही बदल गई है। सम्पूर्ण विश्व में जहां-तहां चल रहे उपद्रवों, हिंसा, अशान्ति का मूल यही
है कि प्रायः लोगों में ‘दूसरों को सुखी अथवा खुश देखने-सुनने की शक्ति नष्ट
होती जा रही है।’ जब तक यह उदारता नहीं आएगी, तब तक सच्ची शान्ति
प्राप्त करना असंभव है। किसी का सुख देखा न जा सके, दूसरे परहित में
लगें, यह भी सहन न हो और दोषों से गहरी मित्रता हो; इन तीनों घातक दूषणों
से घिरी आत्मा शान्ति कैसे प्राप्त कर सकती है?
जहां मात्र लक्ष्मी
और उसके उपभोगों की ही आवश्यकता हो, जहां सहिष्णुता, संवेदनशीलता, समरसता का नामोनिशान
भी न हो, वहां ईर्ष्या आदि दोष उत्पन्न होना तो स्वाभाविक है।
दूसरे के पास लक्ष्मी हो, दूसरा कोई सुख भोगता हो, दूसरा शान्ति से
अपना जीवन निर्वाह करता हो और वह यदि सहन नहीं हो सके, वहां शान्ति की आशा
आकाश-कुसुम तुल्य है। दूसरे का सुख देखकर जिसे व्याकुलता होती हो, उसके हृदय में धधकती
अशान्ति की ज्वाला कैसे शान्त हो सकती है? जो आत्मा दूसरे का
सुख देख न सके, उस आत्मा में जगत के प्राणी मात्र के कल्याण की भावना
कहां से आ सकती है? जहां स्वयं परहित देख नहीं सकता, वहां अन्य लोग परहित
में लगे रहें, यह भावना भी कैसे आ सकती है?
जो व्यक्ति दूसरों
की भलाई नहीं देख सकता हो, दूसरों की खुशी बर्दाश्त नहीं कर सकता हो, वह संसार के सभी
प्राणियों के दोष नष्ट होने की भावना कैसे अपना सकता है? यदि आत्मा स्वयं
अपने स्वरूप में स्थिर रहे और अपनी दुष्प्रवृत्तियों एवं कुटेवों को त्याग दे तो
शान्ति स्वयं आ जाएगी। उसकी प्राप्ति के लिए भटकने की आवश्यकता ही नहीं पडेगी, क्योंकि शान्ति
स्वयं की आत्मा में ही है। उसका उपभोग करना हमें आना चाहिए। दूसरों की शान्ति की
ईर्ष्या करने वालों को कभी शान्ति प्राप्त नहीं होगी, क्योंकि ईर्ष्या
बहुत भयंकर अवगुण है। किसी को सुखी देखकर दुःखी होने वाली आत्मा को इस भव में तो
क्या अनन्त भवों में भी शान्ति मिलना कठिन है। अतः शान्ति चाहने वाले को चाहिए कि
वह ईर्ष्या अवगुण का त्याग करे और ‘सभी सुखी हों’, यह भावना अपनाए।-सूरिरामचन्द्र
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