आज मनुष्य जब परस्पर
मिलते हैं, तब व्यापार-धंधे के विषय में पूछते हैं; परन्तु आत्मा के
विषय में, धर्म-ध्यान के विषय में कोई नहीं पूछता। विदेश आदि से
आने वाले पुत्रों को माता-पिता आदि भी पूछते हैं कि भाई क्या कमाया? परन्तु, यह कोई नहीं पूछता
कि ‘अनीति कितनी की? झूठ कितना बोला? प्रपंच कितना किया? देव-गुरु-धर्म की
सेवा-भक्ति की थी या नहीं?’ स्वास्थ्य के समाचार पूछते हैं, परन्तु धर्म की कोई
बात ही नहीं पूछता। आज आप बच्चों को किस प्रकार की शिक्षा और संस्कार दे रहे हैं? उनका रहन-सहन, खान-पान किस प्रकार
का है? कभी आप अपने बच्चों की अच्छी-बुरी सौबत-संगत पर नजर
डालते हैं या धन-दौलत के नशे में ही चूर हैं, दिन-रात उसी की
उधेडबुन में लगे रहते हैं? आपके व्यवहार से आपकी संतानें क्या सीख रही हैं?
आज ऐसी केवल स्वार्थ
की और पुद्गल से संबंधित बातें पूछने वालों से और उसी में डूबे रहने वालों से कहिए
कि ‘इन बातों में क्या रखा है? स्वास्थ्य यदि ठीक न होता तो मैं घूमता-फिरता कैसे? यदि आप हितैषी हैं, सच्चे स्नेही हैं तो
आत्म-हित की बातें ही पूछिए।’ यदि सच्ची शान्ति की चाह है तो यह सब सीखना पडेगा।
ऐसी भावना जीवन में उतारे बिना शान्ति आएगी कहां से? यों ही शान्ति आती
होती तो परिश्रम की क्या आवश्यकता थी? जिन उत्तम बातों को
आप श्रवण करते हैं, उन पर मनन करें और जीवन में उतारें तो तो लाभ होगा, शान्ति प्राप्त
होगी। जो बुरा हो उसका जीवन में त्याग करिए और जो उत्तम हो उसे जीवन में अंगीकार
करिए, तो आत्मा की शुद्धि हो जाएगी। शुद्धि के अभाव में ही पीड़ित होना पडता है। पाप
की परतें जम गई हैं, उन्हें उतारने में भी पीडा तो होगी ही। बंधन से तो
आत्मा को कष्ट है ही। इसलिए शुद्धि प्राप्त करो और उसका विकास करो। ऐसा मत कहिए कि
‘मैं तो शुद्ध हूं, बुद्ध हूं’। यदि आप शुद्ध हैं
तो फिर अभी निर्धन क्यों बने हुए हैं? सांसारिक कार्यों और
धन-दौलत के पीछे ही क्यों भटक रहे हैं? अपने कर्तव्यों की
चेतना क्यों खो बैठे हैं? दूषित बातें करते हुए डरिए और मानव-जीवन को नष्ट करने
वाली प्रवृत्तियों से बचिए। पाप को पाप मानना सीखिए।
संसार को कैसे
मनुष्य बढने से लाभ होता है? इस पर विचार करो। व्यापार बढे, कारखाने बढे, कम्पनियां बढी, पुलिस, वकील, डॉक्टर, सोलिसिटर, बैरिस्टर, नेता आदि बढ गए।
इतनी वृद्धि होने पर भी इतनी अशान्ति क्यों? शान्ति गई कहां? आपकी प्रवृत्ति
सुधरे नहीं, मन पर नियंत्रण न रहे, इच्छाओं पर अंकुश न
रहे तो शान्ति किस प्रकार प्राप्त हो सकती है? सच्चे दयालु हृदय को
तो वर्तमान दशा देखकर दुःख होता है। थप्पड मारकर मुँह लाल रखने जैसी आज आपकी
परिस्थिति है। इससे भयंकर दुर्दशा मनुष्य जीवन की और क्या हो सकती है? -सूरिरामचन्द्र
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