यदि हम स्वयं शान्ति
चाहते हों तो जगत को शान्ति देने का प्रयत्न करना चाहिए। जगत को शान्ति देने का
प्रयास करेंगे तो हम में भी शान्ति आएगी। जब हम में शान्ति आ जाएगी तो सर्वत्र
स्वतः ही शान्ति का आभास होगा। जैसा दर्पण होगा वैसा चेहरा दिखेगा। यदि दर्पण
गन्दा होगा तो स्वच्छ चेहरा भी गन्दा दिखाई देगा। मुँह पर दाग अच्छा, पर दर्पण पर दाग
बुरा होता है। यदि चेहरे पर दाग हो तो दर्पण में दाग दिखाई ही देगा और उसे तुरन्त
साफ किया जा सकेगा; परन्तु यदि दर्पण पर दाग हो तो क्या होगा? उससे तो चेहरे पर
दाग न होते हुए भी दाग दिखाई देगा और दाग साफ न हो जाए, तब तक खरोंचने से चमडी लाल
हो जाएगी, जलन होगी और इससे जहां दाग नहीं होगा, वहां भी दाग पड
जाएगा। अतः दर्पण स्वच्छ रखना चाहिए। दर्पण पर मिट्टी लग जाए, यह नहीं चलेगा।
नहा-धोकर आभूषणादि पहनकर बाहर जाने के समय ‘आप बराबर हैं’, ऐसा प्रमाण-पत्र
देने वाला दर्पण है। अतः जहां से प्रमाण-पत्र प्राप्त करना हो, वह तो शुद्ध, निर्मल होना चाहिए न? उसी तरह आत्मा को
शुद्ध स्वरूप प्रदान करने वाले आलम्बन भी सर्वथा स्वच्छ होने चाहिए। ज्ञानियों ने
शुद्ध देव, शुद्ध गुरु और शुद्ध धर्म; ये शुद्ध आलम्बन
बताए हैं। इन आलम्बनों में मलिनता नहीं होनी चाहिए। इनमें मलिनता चलने दी तो यह
भयंकर मूर्खता होगी। इनमें मलिनता होगी तो आप शुद्ध कैसे बनेंगे?
शुद्ध आलम्बन लक्ष्य
में रखकर उनका अनुसरण करते हुए चलने का प्रयत्न करना चाहिए, उसी से आपकी आत्मा
की मलिनता नष्ट होगी। शान्ति का अपार भण्डार आत्मा में विद्यमान है। उसके लिए कहीं
मांगने जाने या भटकने की जरूरत नहीं है। परन्तु, शान्ति का उपभोग
करने योग्य बनना पडेगा। जब तक शान्ति का उपभोग करने की योग्यता आप में नहीं आएगी, तब तक शान्ति मिलने
वाली नहीं है।
‘समस्त विश्व का
कल्याण हो, सब प्राणी परहित रत हों, समस्त दोषों का नाश
हो और सर्वत्र लोक सुखी हों’, इन चार भावनाओं में कोई कठिनाई नहीं है तो भी वे आपके
जीवन में क्यों नहीं आती? इन भावनाओं से जीवन ओतप्रोत नहीं होता, यही अशान्ति का मूल
है। आत्मा को शान्ति की आवश्यकता हो तो ये चारों भावना-रूपी गुण जीवन में उतारने
चाहिए। हमें इन चारों भावनाओं के रंग में रंग जाना चाहिए। जीवन का अपार आनन्द
लूटना हो और शुद्ध, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होने से पूर्व
रोम-रोम में अनुपम शान्ति का अनुभव करना हो तो जगत के प्राणीमात्र के कल्याण की, जगत परहित में रत
रहे, विश्व के दोष नष्ट हों और सब सुखी हों; ये चारों भावनाएं
जीवन में उतारनी आवश्यक हैं। इसके लिए जगत के सब जीवों की मित्रता, गुणवान आत्माओं के
लिए सब प्रकार से प्रमोद, भव-दुःख से दीन बनी आत्माओं के लिए कृपा-रस और वास्तव
में निर्गुणी आत्माओं के प्रति उदास वृत्ति अंगीकार करें।-सूरिरामचन्द्र
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