गुरुवार, 27 अगस्त 2015

गुणों से प्रमोद



प्रमोद अर्थात् गुणों के प्रति किसी भी प्रकार का भेद किए बिना हृदय की प्रसन्नता। आज तो अनीतिखोर नीति पर चलने वालों की भी टीका करते हैं, आलोचना करते हैं, वहां प्रमोद का भाव भी कहां से होगा? कोई ऐसा गुणवान नहीं होगा कि जिसके गुणों की आज के पामर आलोचना नहीं करें। ऐसे केवल अपनी वाह-वाह के लिए गुणों के शत्रु बने व्यक्तियों की उपस्थिति में प्रमोद-भाव पनप ही नहीं सकता। जहां विश्व का कल्याण देखने की भी बुद्धि नहीं है, वहां प्रमोद-भाव हो ही नहीं सकता। आज जिधर देखो उधर गुणों और गुणवानों के प्रति जलन, ईर्ष्या, द्वेष रखने वालों की कमी नहीं है।

आज के व्यभिचारी बचपन में ब्रह्मचर्य अपनाने वाले को मूर्ख कहने की, युवावस्था में ब्रह्मचर्य अपनाने वाले को वीर्यहीन, पुरुषत्वहीन कहने की और वृद्धावस्था में ब्रह्मचर्य अपनाने वाले को गयागुजरा, नाकारा कहने की धृष्टता करने में भी नहीं लजाते। आज का कृपण अपने साथ रहने वाले उदार आत्मा की कीर्ति को ढकने के लिए तनिक भी हिचकिचाता नहीं। आज इतनी भयंकरता पूर्वक गुणों से द्वेष हो रहा है और येन-केन-प्रकारेण गुणी आत्माओं को निम्न बताने का जोर-शोर से प्रचार चल रहा है। नीति पर चलने वालों को निम्न कोटि के सिद्ध करने वाले अनीतिवानों, भ्रष्टाचारियों की संख्या आज अधिक है।

आज हिंसा, असत्य, चोरी और षडयंत्रों से अपनी उदरपूर्ति करने वाला भी पवित्र साधुओं के लिए हर्ष से ऊंचा-नीचा बोल सकता है और ऐसा निकृष्ट हल्का बोलने में उसे तनिक भी विचार नहीं होता, लज्जा नहीं आती। यदि कोई उसे कुछ कहे तो उद्दाम वृत्ति से निर्भय होकर वह कहने लगता है- क्यों न कहें? साधु तो संसार के लिए बोझ हैं।ऐसे मनुष्य आज अनेक हैं। यदि उन्हें पूछें कि तुमने बोझ रूप तो कह दिया पर प्रमाण देने होंगे। तुम्हें कभी परिचय हुआ है क्या?’ तब तत्काल बोलेंगे- मेरे तो परिचय नहीं हुआ, परन्तु लोग कहते हैं।यह कैसी विडम्बना और कैसा दुष्प्रचार है? कैसी दुष्टता और धृष्टता है?

क्या यह कम भयंकर दशा है? लोगों में आज गुणों के प्रति प्रेम और भक्ति रही ही नहीं। मैत्री-भाव के साथ प्रमोद-भावना भी अत्यंत आवश्यक है। कल्याण चाहक आत्मा को किसी प्रकार का भेदभाव किए बिना सद्गुणी व्यक्ति को देखकर प्रमोद होना ही चाहिए, परन्तु ऐसा प्रमोद-भाव गुण-ग्राहकता आए बिना आएगा ही नहीं और गुण-ग्राहकता आत्मा को शुद्ध बनाने की सच्ची भावना प्रकट हुए बिना नहीं आएगी। इसलिए सबसे पहली जरूरत है कि आत्मा को शुद्ध बनाने की सच्ची भावना प्रकट हो। इसके लिए विषय-कषाय से दूर रहते हुए भव की पीडा से दीन बनी आत्माओं पर सदा करुण-रस से हृदय आर्द्र रहना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

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