हेय (अकरणीय) का
त्याग और उपादेय (करणीय) का आचरण; इन दो मुख्य गुणों को स्थाई करने के लिए अन्य दो
वस्तुओं की आवश्यकता होगी। ये दो वस्तुएं हैं- जो प्रशंसा के योग्य हैं, उसी की प्रशंसा करनी
और श्रवण-पठन योग्य हो, उसी को सुनना-पढना। लेकिन, आज तो चारण-भाटों सा
धंधा हो गया है। चाहे जैसे व्यक्ति के गुण गाना, उसकी वाहवाही करना, यह धंधा हो गया है।
आज पागल को समझदार और मूर्ख को बुद्धिमान, झूठे को सच्चा और
सच्चे को झूठा, चोरों को दानवीर, दुराचारियों को
धर्मात्मा आदि कहने का भारी पापाचार बढ गया है। जिसमें गुण हों, उसके समक्ष तो
नतमस्तक हो जाना चाहिए; गुणी व्यक्ति के चरणों की धूल भी सिर पर चढा लो; परन्तु, जैसे सौन्दर्य और
स्वच्छता गुण हैं, फिर भी क्या वैश्या के सौन्दर्य की प्रशंसा होगी? नहीं होगी। जिस गुण
का परिणाम उत्तम हो, उसी गुण की प्रशंसा होगी और जिससे भविष्य में आत्मा
को लाभ हो सके, ऐसे गुणों की प्रशंसा होगी। इनके अतिरिक्त अन्य गुणों
की प्रशंसा नहीं होगी।
पापी के प्रशंसक
पाप-मार्ग को प्रशस्त करने वाले हैं, इसलिए जो प्रशंसा के
योग्य हों, उन्हीं की प्रशंसा करनी चाहिए। अयोग्य व्यक्तियों की
प्रशंसा करने से आज जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई है, उसे सुधारने में कई
वर्ष लग सकते हैं। वह भी परिश्रम करेंगे तो होगा। चाहे कैसा ही विरोध हो, तब भी उचित प्रयास
तो करना ही पडेगा। उचित प्रयास करना सबका कर्तव्य है और कर्तव्य पूर्ण करना संभव
है, फिर भी कर्तव्य-पथ से च्युत हो जाएं तो प्राप्त मानव-जीवन हमने निरर्थक ही
खोया, ऐसा माना जाएगा।
इसी प्रकार गुणों को
स्थिर रखने के लिए सुनने-पढने योग्य हो, उसी को सुनें और
पढें। आज सार्वजनिक स्थानों और चौराहों पर बै-सिर-पैर की इतनी बातें चलतीं हैं कि
उन सबको सुनने से हानि ही हानि है। ‘सुनने योग्य न हो, वह सुनना ही नहीं, यदि यह नियम हो जाए
तो बुरों की प्रशंसा नहीं होगी, बुरे काम रुक जाएंगे और त्यागने योग्य को त्याग दिया
जाएगा। अयोग्य बातें करने वालों के फंदे में फंस गए तो आपका उद्धार होने की आशा
नहीं है। परन्तु, आज कान तेज हो गए हैं, श्रवणेन्द्रिय तीव्र
हो गई है, अतः बुरी बातें भी सुने बिना नहीं रहा जाता। आज
अपठनीय पढकर और नहीं श्रवण करने योग्य सुनकर अनेक पाप, अनेक कारस्तानियां
हो रही है। एक ओर तो ऐसी भयंकर दशा हो गई है और दूसरी ओर श्रवण करने योग्य सुनने
में बेपर्वाही बढ गई है। अपने स्वयं के दोषों को सुनने की शक्ति आज अधिकांश व्यक्तियों
में नहीं रही। तत्त्वज्ञान की सुनने, समझने और स्मरण रखने
योग्य बातें भी यदि कोई सुनाने वाला मिले तो भी आज कइयों को आनंद नहीं आता। परन्तु
वास्तविक सुनने योग्य तो वही है, क्योंकि उसके बिना हमारा उद्धार नहीं है।-सूरिरामचन्द्र
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