‘अनन्तज्ञानी उपकारियों ने धर्म किसको कहा
है? दान, शील,
तप और सद्भाव को? या लक्ष्मी, विषय-विलास, शरीर
की पुष्टि और अशुभ विचारों को?’ यह विचार करो, कारण
कि यह विचारे बिना धर्म का स्वरूप वास्तविक रूप से समझ में नहीं आता है। दुनिया
में दान भी दो प्रकार से दिया जाता है। पांच देकर पांच सौ लेने के लिए और दूसरा सौ
हो उस में से पांच देकर उस समय पांच की और परिणाम से सौ की भी ममता उतारने के लिए।
लक्ष्मी को अच्छी मानते हो या गलत? यदि खोटी, तो
खोटी चीज के लिए धर्म करना,
वह दूषित है या निर्दोष? जिस चीज को गलत मानते हो, उसके
लिए धर्म का उपयोग होता है?
भगवान की पूजा करके भगवान से बंगला और ऐश्वर्य मांगा जाता
है? भगवान बडे या ऐश्वर्य बडा? विषय-वासना बढे, उसके
लिए पूजा करने की है अथवा घटे उसके लिए? जिसको खोटा मानते हो, त्यागने
योग्य मानते हो,
उसको प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाए, यह
ठीक है? इन समस्त प्रश्नों का उत्तर सीधा तभी दिया जा सकता है कि जब ‘उपकारियों
ने धर्म क्यों कहा है?’
यह समझो। और इसी कारण से समझो कि उपकारियों ने दान को धर्म
कहा है, किन्तु लक्ष्मी को नहीं कहा, शील को धर्म कहा है, किन्तु
विषय-विलास को नहीं कहा है,
तप को धर्म कहा है, किन्तु शरीर की पुष्टि को
नहीं कहा और सद्भाव को धर्म कहा है, किन्तु अशुभ विचारों को नहीं
कहा है। जो इस बात को नहीं समझते हों, उनकी दशा आज भिन्न प्रकार की
ही है।-सूरिरामचन्द्र
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