करने योग्य चार
बातें कही गई हैं- दान, शील, तप और भाव। समझाने के लिए इन चारों को उदारता, सदाचार, इच्छा-निरोध और
सद्विचार भी कह सकते हैं। उदारता अर्थात् स्वार्थ की बलि देकर परमार्थ का आचरण।
अपने सांसारिक स्वार्थ की अवगणना कर के दूसरे जीवों के लिए कल्याणकारी आचरण ही
उदारता है। त्याग भावना से लक्ष्मी का त्याग भी उदारता है, अर्थात् पांच देकर
पचास प्राप्त करने का सट्टा नहीं। मन में ऐसा विचार नहीं कि यहां दूंगा तो मुझे
आगे कई गुणा मिलेगा। ऐसा सोच आत्मघाती है। इसलिए बदले में कुछ पाने की अपेक्षा किए
बिना मुक्त हृदय से उदारता करना, दान देना, यह पहली करणीय वस्तु
है। सदाचार अर्थात् अपने शरीर द्वारा भी लेशमात्र पाप न हो जाए, ऐसी बुद्धि और विवेक
से उत्तम आचार का पालन। शरीर से अनेक पाप होते हैं वे न हों; उन्हें रोकने के लिए
उत्तम आचरण को सदाचार अथवा शील कहते हैं। यह दूसरी करणीय वस्तु है।
तप अर्थात् इच्छाओं
का निरोध या दमन। ‘यह चाहिए - वह चाहिए’, ऐसी तृष्णा का लोप
तप कहलाता है। सच्चा तप यही है। दूसरे सब तो इस तप के साधन हैं। वास्तविक तप का
अर्थ है- ‘किसी भी अनुचित इच्छा के आधीन नहीं होना।’ तप से तात्पर्य
समस्त पाप-वासनाओं का नाश है। वासनाओं के पोषक कारणों में रसना इन्द्रिय (जीभ)
प्रमुख है। होटल में जाने की प्रेरणा किसने दी? रोटी और एक सब्जी से
पेट भर सकता है या नहीं? पर रोटी तो एक और उसके आसपास दस अन्य पदार्थ हैं।
शरीर के लिए पोषक क्या है- रोटी या अन्य आसपास के पदार्थ?
घर से शाम को खाकर
निकलने पर भी बाजार की बासी और सडी हुई वस्तुएं रात्रि में खाना किसने सिखाया? केवल स्वाद ने। घर
के खर्च से आज होटल के खर्चे बढे हुए हैं। उनमें से अनेक दुर्गुणों की उत्पत्ति
हुई है। मादक व तामसिक खाद्य पदार्थों के सेवन से और अयोग्य पदार्थ पेट में जाने
से विकार उत्पन्न होते हैं और बुद्धि भ्रष्ट होती है, तामसिक वृत्ति पैदा
होती है। इनका और भी पोषण होता है नाटक और सिनेमा द्वारा। पत्नी-बच्चों को खुश
करने के लिए महिने में चार-पांच बार तो देखने ही पडते हैं। वहां क्या देखते हैं? कुचेष्टाएं; और उनसे हमारी ऐसी
उन्मत्त दशा हुई है। परिणाम स्वरूप अनेक प्रकार के दुर्व्यसन और मानसिक विकार
उत्पन्न होते हैं। भावी पीढी पर भी इसके दुष्प्रभाव पडते हैं। किसी भी पाप-वासना
के आधीन नहीं होना, यह तीसरा इच्छा-निरोध कर्तव्य है। चौथी वस्तु
सद्विचार है। किसी का बुरा नहीं सोचना। सबका भला सोचना। मन, वचन और काया से किसी
का बुरा न हो, उसकी सावधानी रखनी चाहिए। इनका सदा लेखा रखना पडेगा- आज लक्ष्मी का
कितना त्याग किया, कोई बुरा कार्य तो नहीं किया, जीभ तो नहीं लपलपाई, किसी का बुरा तो
नहीं सोचा? -सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें