आत्म-शुद्धि के लिए
प्रयत्नशील आत्मा को सर्व प्रथम आत्मा को हानि पहुंचाने वाली सभी वस्तुओं का त्याग
कर देना चाहिए और जब तक आप उन्हें त्याग नहीं सकें, उन्हें त्यागने का
प्रयत्न करते रहना चाहिए। व्याधि होने पर चिकित्सक तुरन्त नाडी देखता है। सर्व
प्रथम पेट साफ करने के लिए जुलाब देता है, क्योंकि जब तक पेट
में मल है, तब तक दी जाने वाली औषधि मल में वृद्धि करेगी और व्याधि ठीक नहीं होगी। उसी तरह महान चिकित्सक ज्ञानी पुरुषों ने
आत्म-शुद्धि के लिए प्रथम उपाय बताया है कि ‘त्यागने योग्य को
मालूम करके पहले उसे त्याग देना चाहिए।’ अब देखना यह है कि
त्यागने योग्य क्या है? हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह तो
त्यागने योग्य हैं ही। अधिक गिने जाएं तो क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि अठारह पाप
स्थानक भी त्यागने योग्य हैं। अठारह पाप स्थानक आपके लिए त्यागने योग्य हैं, यह मानते हैं न? क्या आपको विश्वास
है कि ‘हिंसा आदि त्यागने योग्य हैं और उन्हें त्यागे वह पुण्यशाली है?’
आप यह भी मानते हैं
न कि ‘हम अमुक वस्तुओं का त्याग नहीं कर सकते, अतः पापी हैं, अशक्त हैं, सत्वहीन हैं और जो
उनका त्याग करता है, वह उत्तम और उच्च कोटि का है? ऐसे त्यागियों को ही
आप हाथ जोडें, पूजें, उनके चरणों में
गिरें, उनकी सेवा करें और उनकी आज्ञा मानने के लिए तैयार
रहें। हम नहीं त्याग सकते, अतः अभागे हैं, सत्वहीन हैं, बलवान होते हुए भी
निर्बल हैं।’ यदि आप ऐसा समझते हैं तो जिन्होंने त्याग किया है, वे आपको त्याग करने
के लिए कहें तो उन्हें इनकार करने में लज्जा तो आएगी न? यदि इतनी लज्जा भी
आप में हो तो भी कल्याण होगा। जिसकी आँख में शर्म हो, वह एक न एक दिन
त्याग-मार्ग पर बढकर अपना कल्याण साध ही लेता है।
हिंसा करने से लाखों
की सम्पत्ति मिलती हो अथवा झूठ बोलने से असीम लाभ की संभावनाएं बलवती होती हों, पर वह नहीं चाहिए।
किसी की सर्वोत्तम वस्तु भी उसका बदला दिए बिना लेनी नहीं चाहिए। ब्रह्मचर्य भंग
महापाप है। परिग्रह (धन का मोह) छूट जाए तो कल्याण हो जाए। यह बात मानो तो आपका और
मेरा मेल हो जाए। हम ये सब बातें मनवाने के लिए परिश्रम करते हैं। जो वस्तु
त्याज्य है, उसे कोई त्यागे या त्यागने के लिए कहे तो वह कोई
अपराधी नहीं है। परिवार का मुखिया त्याग करके यहां आ जाए तो उसके साथ स्वार्थ एवं
मोह से जुडे लोगों को रुदन और क्लेश भी हो सकता है, लेकिन इने-गिने दिन
तक। इस भय से त्यागने योग्य का त्याग न करके मृत्यु तक वहीं पडा रहने वाला नित्य
कितनों को रुलाएगा? यह बात आपको समझ में नहीं आ रही है, इसीलिए त्यागने
योग्य वस्तुएं त्यागी नहीं जा रही हैं।-सूरिरामचन्द्र
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