मनुष्य-जन्म प्राप्त
लोगों का उत्तरदायित्व बहुत है। जन्म लेकर आत्म-कल्याण के लिए कुछ करने-धरने की
बजाय, मात्र मरने के लिए ही जन्म लिया हो, तो मुझे कुछ कहना
नहीं है। अच्छा खाया, अच्छा पीया, अच्छे वस्त्र पहिन
लिए, खूब संसार भोगा, मौज-शौक कर लिए; यह सब ठीक है, पर परिणाम क्या? मरना निश्चित है तो
मरकर जाओगे कहां? परलोक तो आप मानते हैं न? जो जन्मता है, उसे मरना ही पडता है, यह भी आप मानते हैं
न? कहीं से आए और कहीं जाओगे, यह तो निश्चित है न? इसका विचार किया है? किसी गांव जाना हो
तो सब बातों का विचार करते हो। खाने-पीने के लिए साथ ले लेते हो। एक गांव से दूसरे
गांव जाने के लिए इतनी सामग्री व इतनी तैयारी होती है और ‘मरकर कहां जाना है? फिर पता नहीं किस
दशा में और कहां जाकर रहना पडेगा? वहां कोई आढतिया, रिसिवर या ड्राईवर
लेने आएगा भी या नहीं’, इतना भी यदि विचार नहीं किया जाए तो कितनी मूर्खता है? ऐसे को मनुष्य कैसे
कहा जाए?
संसार के पक्के
अनुभवी, चतुर और बुद्धि-निधान मानेजाने वाले आप लोगों ने इसका
भी विचार नहीं किया कि ‘आपको जाना कहां है?’ तो फिर आपको क्या
कहा जाए? यह विचार मनुष्य जैसे प्राणी को तो आना ही चाहिए। ‘अगला भव किसने देखा
है, जो होना होगा सो होगा’, इस तरह कहने वाले सचमुच अपनी बुद्धि का नीलाम ही करते
हैं। आज आपके पास जो कुछ है और जो कुछ आप भोग रहे हैं, वह पूर्व पुण्य के
कारण भोग रहे हैं। यह तो आप सब मान रहे हैं न? आप से अधिक
शक्तिशाली अनेक लोग भटकते रहते हैं, उन्हें कोई ‘भाजी के भाव’ भी नहीं पूछता और आप
निर्बल हैं फिर भी आपकी सेवा करने वाले अनेक हैं, यह आपकी पूर्व जन्म
की शुभ करनी का प्रताप है; और सबल होने पर भी सामग्री का अभाव, यह उनकी अशुभ करनी
का प्रताप है। यह समझकर मनुष्यों को भविष्य का विचार करना चाहिए।
भविष्य के लिए विवेक
पूर्ण विचार करना ही बुद्धि का वास्तविक सदुपयोग है। स्वयं को मिली हुई बुद्धि का
जो सदुपयोग नहीं करते, उनका मैं तो क्या, लेकिन परमात्मा कोटि
की आत्माएं भी उद्धार करने में असमर्थ हैं। या तो अज्ञानी अच्छा या ज्ञानी अच्छा; लेकिन बीच वाला
त्रिशंकु के समान डेढ होशियार तो बहुत ही बुरा होता है। अज्ञानी व्यक्ति में एक
गुण है कि उसे जिधर मोडना चाहो, उधर वह मुड जाएगा, ज्ञानी में भी यह
गुण है कि वह वस्तु को तुरंत समझ जाएगा, परन्तु जो न तो
ज्ञानी हो और न अपने आपको अज्ञानी माने, उसका उदय कैसे हो? हो ही नहीं सकता।
हमें सब अच्छा कहें तो ठीक लगता है, परन्तु अच्छा बनने
के कर्म नहीं किए हों तो शास्त्र फरमाते हैं कि हम जैसे हैं, वैसा ही कहा जाए तो
सुन्दर है।-सूरिरामचन्द्र
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