आज कई लोगों में यह
मान्यता घर कर गई है कि ‘भगवान तो पत्थर का पुतला है, गुरु किसी काम के
नहीं और धर्म प्राचीन काल की वस्तु है।’ अतः मैं यह पूछना
चाहता हूं कि ‘क्या संसार के सब पदार्थ आत्मा की रक्षा करने में समर्थ हैं, सक्षम हैं?’ तो उत्तर मिलेगा कि ‘नहीं, ये सब पदार्थ आत्मा
की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं।’ इसीलिए मैं पुनः
प्रश्न करता हूं कि ‘संसार के प्रत्येक कार्य के अभ्यास की तैयारी जीवन के
प्रारम्भ से अंत तक चलती ही रहती है, तब फिर इस क्षेत्र
का, आत्म-कल्याण का अभ्यास आप कब करेंगे?’ आत्मा एवं आत्म-धर्म
ये व्यर्थ की वस्तुएं हैं अथवा कुछ उपयोग की हैं? यदि ये कुछ उपयोग की
हैं तो रात्रि में सोने से पहले इतना ही सोचिए कि ‘हमने हमारे स्वयं के
लिए, आत्मा के लिए क्या किया? यदि आपको आत्मा के प्रति श्रद्धा होगी तो कुछ नवीनता
ही दृष्टिगोचर होगी।
आज ऐसा सोच बनता जा
रहा है कि इन निरर्थक बातों का क्या लाभ? आज तो राज्य, ऋद्धि, सिद्धि, पांच लाख, पच्चीस लाख किस तरह
प्राप्त हो सकते हैं, ऐसी बातें करनी चाहिए। मैं आपको कहना चाहता हूं कि ‘अर्थ और काम का
प्रलोभन बताकर समस्त विश्व को अपना अनुयायी बनाना हो, उसके लिए
प्राणोत्सर्ग करने को तत्पर बनाना हो तो उसमें कोई महत्ता, विशेषता नहीं है।’ जब देव, गुरु और धर्म की बात
आती है, तब कहा जाता है कि ‘छोडिए न झंझट, यह सब तो वृद्धों को
सौंप दीजिए।’ इस पर मैं पूछता हूं कि ‘वृद्ध होने के बाद
ही मौत आएगी या बीच में भी आ सकती है?’ सभी लोग जानते हैं
कि माता के गर्भ में भी मृत्यु हो सकती है, जन्म के समय, पांच, पच्चीस या पचास वर्ष
की आयु में भी मृत्यु हो सकती है। ऐसा कोई समय नहीं कि जब मृत्यु नहीं हो सकती।
मृत्यु कभी पूर्व सूचना देने नहीं आती। आज तो नाना प्रकार के रोगों के बीज ऐसे हो
गए हैं कि बिलकुल स्वस्थ मनुष्य हो और उसका हार्ट-फेल हो जाता है। रोग भी आज इतने
भयंकर हैं कि जिनके नाम भी पहले सुनने में नहीं आते थे। अतः इस युग में ‘धर्म कल करेंगे’, यह कहना ही पागलपन
है।
कालचक्र घूमता जा
रहा है। कौन कब उसका शिकार होगा, यह किसी को ज्ञात नहीं है। यह सोचकर ही हिंसा आदि का
परित्याग करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। सम्पूर्ण त्याग संभव नहीं हो तो
थोडा-थोडा त्याग करते रहना चाहिए। मृत्यु से निर्भयता तो केवल उन पुण्यात्माओं में
ही हो सकती है, जिन्होंने न तो कभी किसी का अनिष्ट किया-कराया और न
किसी के अनिष्ट की कामना की है। चौबीसों घण्टे अहर्निश पाप कार्यों में रत रहने
वाले यदि कहें कि ‘हमें मृत्यु का कोई भय नहीं है तो उसका कोई अर्थ नहीं
है। आत्मा और परलोक को मानने वाले ऐसा कभी नहीं कह सकते। निर्भयता, नम्रता, क्षमा, शान्ति आदि के अर्थ
हमें समझने होंगे।-सूरिरामचन्द्र
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