सच्चा धर्म-प्रेमी मनुष्य धर्म की रक्षा के लिए अपनी ताकत का उपयोग करने में लेशमात्र भी प्रमाद अथवा उपेक्षा नहीं करता और उसी में उसके धर्म-प्रेम की कसौटी होती है। जिन्हें धर्म के प्रति प्रेम नहीं है वे तो बात-बात में यह कह देते हैं कि ‘होगा, करेगा वह भोगेगा, हम क्यों व्यर्थ समय नष्ट करें?’ ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि भगवान की अथवा भगवान के मार्ग की आशातना को रोकने का प्रयत्न नहीं करने वाले और स्वयं के कार्य में ही रुचि लेने वाले धर्म के सच्चे प्रेमी नहीं हैं। धर्म का सच्चा प्रेमी तो ऐसे समय पर शान्त बैठा रह ही नहीं सकता।
केवल बातें करने वाले लोग धर्म की आराधना नहीं कर सकते। धर्म तो हमारे रोम-रोम में व्याप्त होना चाहिए। ज्ञानियों के एक-एक वचन के लिए सर्वस्व समर्पित करने की उत्कंठा हम में बलवती होनी चाहिए। इसके बिना योग्य आलंबनों का उचित लाभ नहीं लिया जा सकता। यदि उत्तम संगति प्राप्त होने पर भी आवश्यक सद्भावना की हृदय में उत्पत्ति न हो तो हमारा महान् दुर्भाग्य ही माना जाएगा।
संसार में ख्याति प्राप्त करने के लिए अथवा किसी अन्य सांसारिक स्वार्थ के लिए जो लोग सत्य आदि धर्म के उपासक बने हों वे सत्य आदि धर्म को हानि ही पहुंचाते हैं। उनका ज्ञान अज्ञान के समान, उनका संयम असंयम के समान और उनकी अहिंसा हिंसा के समान ही कार्य करती है।
जिससे धर्म दौडा हुआ हमारे पास आए, वही शिक्षा है, वही ज्ञान है। जो शिक्षा हमें धर्म से विपरीत ले जाए, ज्ञानी और उनके वचन की हंसी कराए, ज्ञानियों द्वारा कथित अनुष्ठानों की खुले बाजार में मजाक हो, उस ज्ञान के, उस शिक्षा के हम शतप्रतिशत खिलाफ हैं। मृत्यु पर्यन्त उसका विरोध करने की हमारी भावना रहेगी और आगामी भव में भी हम ऐसी गलत शिक्षा के विरोधी बनें, ऐसा नियाणा है, क्योंकि उसका विरोध करने में प्राणी-मात्र का श्रेय समाविष्ट है।-सूरिरामचन्द्र
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