जुवेनाइल जस्टीस एक्ट, 2000 यानी किशोर न्याय (बालकों की देखरेख व संरक्षण) अधिनियम, 2000 की धारा 23 में प्रावधान किया
गया है कि “जो कोई भी एक किशोर पर वास्तविक भार या नियंत्रण
रखते हुए किशोर या बालक पर प्रहार करता है, उसका परित्याग कर देता है, प्रकट करता है, या जानबूझकर किशोर की उपेक्षा करता है, या उस पर प्रहार, परित्याग, प्रकट या उपेक्षा एक ऐसी रीति से करवाता है या उपाप्त
करता है कि ऐसे किशोर या बालक को अनावश्यक शारीरिक या मानसिक कष्ट होने की संभावना
हो,
वह ऐसी कालावधि के कारावास से दंडनीय होगा, जिसका विस्तार छः महिने, या जुर्माना या दोनों से हो सकेगा।”
इस प्रकार यदि धारा-23 के प्रावधानों को जस्मीन शाह के द्वारा दी गई दलीलों के प्रकाश
में देखें तो यह किसी प्रकार स्पष्ट नहीं होता है कि धारा-23 में वर्णित अपराध घटित हुआ है, क्योंकि धारा-23 का अपराध घटित होने के लिए यह आवश्यक होता है कि कोई संरक्षक अपने नियंत्रण या
प्रभार के अधीन रहने वाले किशोर या बालक पर प्रहार करे या उसका परित्याग करे व ऐसा
परित्याग या प्रहार या उपेक्षा इस आशय से करे कि उस बालक को अनावश्यक शारीरिक या मानसिक
कष्ट होने की संभावना हो। यह सही है कि दीक्षा में बालक को अपना घर छोडकर जैनधर्म के
साधुओं के सानिध्य व सहचर्य में रहना होता है; परन्तु यह परित्याग धारा-23 में वर्णित परित्याग
से भिन्न है। धारा-23 के परित्याग की मंशा अलग है। धारा-23 के प्रावधान उस दशा में लागू होते हैं कि जब कोई संरक्षक अपने
संरक्षणाधीन बालक को लावारिस हालत में, आश्रयविहीन हालत में जानबूझकर छोड दे या परित्यक्त कर दे। यहां न तो ऐसा कृत्य
किसी के द्वारा किया गया है और ना ही ऐसा कोई आशय ही है। यदि किसी दीक्षार्थी द्वारा
अपने धर्म की रीतियों के क्रियान्वयन में कोई कार्य किया जाता है, जिससे शारीरिक कष्ट होता है तो ऐसा कष्ट धारा-23 में वर्णित कष्ट की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है।
कष्ट या सुख की अपने आप में कोई परिभाषा नहीं है, ना ही ऐसी कोई परिभाषा किसी विधि-क़ानून में देखने को मिलती है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन के कष्ट, दुःख, सुख की परिभाषा स्वयं
की इच्छाओं, स्वयं के ज्ञान की सीमाओं के आधार पर तय करता है।
हो सकता है कि जस्मीन शाह की दृष्टि में किसी बच्चे का खेल-कूद नहीं पाना, मेला-मनोरंजन नहीं देखपाना, टीवी या फिल्में नहीं देखपाना, अश्लीलता परोसने वाले दृश्यों को देखने से वंचित रहजाना, स्वच्छंद घुम-फिर नहीं पाना, संध्याकाल के बाद भोजन ग्रहण नहीं करना, लम्बी पैदल यात्रा करना आदि शारीरिक कष्ट की श्रेणी में हो। परन्तु, यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति को यह शारीरिक कष्ट लगे।
यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छया यह सब करता है तो यह नहीं माना जा सकता है कि वो किसी प्रकार
कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है। किसी व्यक्ति को किसी कृत्य से कष्ट होगा या नहीं, इस बात का निर्धारण उस व्यक्ति विशेष को ही करना होता है। जस्मीन
शाह को किसी व्यक्ति के कष्ट का निर्धारण करने का कोई अधिकार नहीं है।
इसी प्रकार यदि दीक्षार्थी केश लोचन करता है तो
यह कार्य किसी प्रकार क्रूरता की श्रेणी में नहीं आता है, क्योंकि यह एक धार्मिक परिपाटी है। यदि इसे क्रूरता माना जाए
तो भारतीय विभिन्न धर्मावलब्यिों द्वारा अपने छोटे-छोटे बच्चों के नाक, कान में छेद करवाए जाते हैं, जिसे धर्म के अनुसार उपनयन संस्कार के नाम से जाना जाता है। मुस्लिम धर्म में बच्चों
का खतना करवाया जाता है, जो खलीफाओं द्वारा किया जाता है। जस्मीन शाह की
परिभाषा के अनुसार देखा जाए तो यह भी क्रूरता की श्रेणी में आता है। परन्तु, स्वीकृत रूप से यह कृत्य भी किसी क्रूरता की श्रेणी में नहीं
आता है, बल्कि व्यक्ति की अपनी धार्मिक आस्था व धर्म पालन
के अधिकार के तहत ही यह कृत्य आता है। इस प्रकार धारा-23 में वर्णित अपराध किसी भी तरह घटित होना नहीं पाया जाता है।
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