जीवन को सार्थक
बनाने के लिए जिस तरह ज्ञानियों ने अनेक बातें बताई हैं, उसी तरह नीति, पापभीरुता और इन्द्रिय-निग्रह; इन तीन बातों को भी
बहुत आवश्यक बताया है। ये तीनों बातें एक दूसरे की पूरक भी हैं और एक के बिना
दूसरे का अस्तित्व बचापाना असंभव भी है, तीनों
अन्योन्याश्रित हैं। यानी तीनों बातें जीवन की सार्थकता के लिए परमावश्यक है।
मानव-जीवन की सार्थकता की बुनियाद नीति पर ही अवलम्बित है। यदि हम नीति पर अटल
रहना चाहते हैं तो पापभीरुता की आवश्यकता होगी और पाप-क्रियाओं से बचने के लिए इन्द्रियों
पर नियंत्रण परमावश्यक है। यदि ये तीनों बातें जीवन में घुलमिल जाए तो जीवन उच्च
कोटि का बन जाता है और सबके लिए स्तुत्य, नमस्करणीय, अनुकरणीय बन जाता
है।
इन्द्रिय-निग्रह के
लिए मन की शुद्धता की भी आवश्यकता रहती है। मन की शुद्धि उसी व्यक्ति में संभव है
जो नीतिवान और पापभीरु हो। पापभीरुता उसी व्यक्ति में टिक सकती है, जो नीतिवान हो और
जिसकी इन्द्रियां नियंत्रण में हों। इसी प्रकार इन्द्रियों को वही नियंत्रण में रख
सकता है, जो पापभीरु हो और नीतिवान हो। मतलब यह कि तीनों ही
बातें एक-दूसरे से जुडी हुई है, एक दूसरे की पूरक है और अन्योन्याश्रित है। जिस जीवन
में नीति प्रवेश कर जाती है, उससे समस्त प्रपंच दूर रहते हैं। नीति तो मानव जीवन
की नींव है। मनुष्य कैसी भी स्थिति में हो, परन्तु उसने अपने
जीवन के लिए कल्याण का मार्ग निश्चित किया हो तो उस मार्ग से लिपटे रहने की शक्ति
नीति की अधीनता में ही विद्यमान है। नीति जीवन को मर्यादा में रखती है। सुनीतिवान
मनुष्य से किसी को हानि नहीं होती। आज जो मनुष्य जीवन का अधःपतन हमें दिखाई दे रहा
है, उसकी मुख्य वजह ही है नीति-नैतिकता का हृास, पाप करने में अभय और
बेकाबू इन्द्रियां।
किसी भी उत्तम वस्तु
का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए नहीं किया जाना चाहिए। किसी स्वार्थ के लिए नीति का
उपयोग करने वाला व्यक्ति नीति मार्ग से कब विचलित हो जाए, यह कहा नहीं जा
सकता। नीतिवान को यह देखना होगा कि कहीं किसी का भी अनिष्ट न हो जाए। नीति से
तात्पर्य है कि हृदय की विशुद्ध वृत्ति से कार्य करने की प्रणाली। प्रवृत्ति और
विचार एक ही होना चाहिए, कथनी-करनी में एकरूपता होनी चाहिए, अन्य प्राणियों के
साथ किसी प्रकार के भेदभाव, छल-कपट, अन्याय, किसी प्रकार की माया
या तुच्छ-स्वार्थ से रहित आत्म-कल्याणकारी एवं सर्व-कल्याणकारी नियम नीति हैं।
विचार में कुछ और करनी में इच्छा पूर्वक कुछ दूसरा ही हो, यह नीति में नहीं
चलता। जो बात हृदय में हो, वही बात हितकारी ढंग से उसके वचनों से भी प्रकट होनी
चाहिए और तदनुसार व्यवहार करने का, अपना और पराये हित
का ध्यान रखते हुए प्रयत्न होना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र
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