हमें मानव जीवन मिला, उच्च कुल मिला, सुदेव-सुगुरु-सुधर्म
का योग मिला, धर्म श्रवण का अवसर भी हमारे पास है; मतलब कि हमें अमुक
प्रकार की शक्ति और सामग्री मिली, यह हमारा सबका महान पुण्योदय है, इसके लिए कोई इनकार
नहीं कर सकता है। जो कुछ हमें मिला है, उसमें किसी प्रकार
की शंका नहीं है, परन्तु प्राप्त वस्तु को सार्थक करने की योग्यता
प्राप्त नहीं हो, तब तक मिली हुई सामग्री निरर्थक है।
बिना मानवता के
मानव-भव व्यर्थ है, वह मानवता क्या है? सब प्रकार की दूसरी
शिक्षा आप लें, तब भी वह शिक्षा आप में सच्ची मानवता नहीं ला सकती।
मानवता प्राप्त करने का शिक्षण भिन्न है। इधर-उधर की पुस्तकें पढने से उस मानवता
का शिक्षण नहीं मिलता। संसार के प्राणी मात्र की अपनी ओर से रक्षा करने की
सर्वोच्च भावना का नाम ही मानवता है। उस पर आप पूरी तरह अमल न कर सकें, तब भी उसके संबंध
में सोच-विचार तो होना ही चाहिए। एक ही विचार करना चाहिए कि ‘हमें मानव-भव मिला
है तो हमारे लिए, हमारे प्रयास से, हमारे द्वारा किसी
भी प्राणी की हिंसा-विराधना न हो, इस प्रकार की रक्षा हम कैसे करें?’ बस, फिर मानवता का विकास
होने में देर नहीं लगेगी।
दूसरों की रक्षा
करने की भावना में ही अपनी सुरक्षा अंतर्निहित है। सच्ची रक्षा-बुद्धि
आत्महितावलम्बी ही होती है, अतः उससे आत्मा को लाभ ही होता है। जो रक्षा-बुद्धि
आत्मा के लिए हानिकारक हो, उसे ज्ञानी सच्ची रक्षा-बुद्धि नहीं मानते। रक्षा की
भावना और रक्षा की कार्यवाही आत्म-कल्याण की दृष्टि वाली होनी चाहिए। प्रशंसा पाने
के लिए अथवा बडप्पन बताने के लिए दानी बनने वाले को लूट मचाने में विलम्ब नहीं
लगेगा; जबकि दूसरे का कल्याण करने के लिए दानी बनने वाला कभी
लूट मचा ही नहीं सकता।
सच्चा दानी वह है, जो अनीति से एक पैसा
भी तिजोरी में भरने की भावना न रखे। जो नित्य पांच घर लूटता हो और सैंकडों का दान
देता हो, उसे आप दानी मानेंगे क्या? ऐसे दानी की प्रशंसा
करने को क्या आप तैयार हैं? दान देने के लिए चोरी करने में बुराई है कि नहीं? ऐसे दानी से तो आप
भी डरेंगे, क्योंकि ‘आज पडौसी का घर लूटा
तो कल आपका भी लूटेगा’। यह बात सही है या नहीं? ऐसे व्यक्ति से
संसार का क्या लाभ? कोई यह भी कहेगा कि ‘चोरी करने का बुरा
कर्म किया, पर चोरी करने का आशय क्या है? दान करने के उत्तम
उद्देश्य से बुरा काम करने में बुराई क्या है?’ क्या आप ऐसे
कुबुद्धि के तर्क मानेंगे? ऐसा हुआ तो अच्छे कार्य तो धरे ही रह जाएंगे और संसार
में कुकर्मों का साम्राज्य फैल जाएगा? ऐसे में मानवता, मानवीय गरिमा कहां
बचेगी? -सूरिरामचन्द्र
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