बालक को गृहदीपक या
कुलदीपक बनाना हो तो उसकी इच्छानुसार चलने नहीं देना। दीपक अर्थात् प्रकाश करने
वाला, किन्तु जलाने वाला नहीं। कुलदीपक अर्थात् कुल को प्रकाशित करने वाला, किन्तु कुल को जलाने
वाला नहीं! इसलिए बालक में सुसंस्कार डालो। अमुक धर्म-क्रिया तो करनी ही चाहिए, ऐसी आज्ञा भी करो।
धर्म की आज्ञाओं का जैसे भी संभव हो पालन कराओ। जैन का बालक पूजा और सामायिक के
बिना कैसे रहे? ‘होगा, बालक है! होगा, बालक है,’ ऐसा व्यवहार करोगे
तो जीवनपर्यन्त रोना पडेगा। अंकुश होगा तो वही बालक ‘पिताजी-पिताजी’ करेगा। मुंह से
वाक्य निकले तो मानो मोती निकल रहे हैं, बडों को हाथ जोडे और
आत्महितकारी बडों की प्रत्येक आज्ञा को सिरोधार्य ही माने।
बालकों को मौजमजे
में जोडना, होटल में, नाटक-चेटक या सिनेमा
में भेजना, यह इरादापूर्वक उनके आत्महित का खून करने के बराबर
है। आज के माता-पिता तो ऐसे स्थानों में उनको साथ लेकर जाते हैं और रसपूर्वक उसका
वर्णन करके बताते हैं। अच्छा तो याद नहीं रहता, किन्तु भाण्ड-चेष्टा
याद रखते हैं। सामान्य ढंग से विलास-अभिनय सबको याद रहता है और यह स्थान अंत में
जीवन को बर्बाद करता है। वहां प्रायः विषय, विलास और श्रृंगार
का उत्तेजन होता है। ऐसे कुमार्ग को प्रेरित करने वाले स्थानों में जाने से रोकने
के लिए सन्तान के पिताजी मना करते हैं, तो बालक दो-चार दिन
रोता भी है, किन्तु बाद में जिंदगी भर का रोना मिट जाता है। लेकिन
यदि वहां पिताजी को उस पर दया आती है तो धर्मदृष्टि से कहा जाता है कि पिता दयालु
नहीं है, अपितु निर्दयी है। संतति के आत्महित का नाश करना, यह तो स्पष्टतः
निर्दयता है। कभी बालक सर्प को खिलौना समझकर पकडने जाता है? जलते हुए अंगारे में
भी हाथ डालता है? किन्तु, मां-बाप तो उसको
रोकेंगे ही न? मुंह में मिट्टी और कोयला डालता है, तो उसकी मां मुंह
में अंगुली डालकर निकाल देती है न? उल्टी कराकर भी
निकालती है। रुलाकर तथा उसे मारकर भी निकलवाती है। कई भवाभिनन्दी माता-पिता को यह
भय रहता है कि ‘यदि इसमें नहीं जोडेंगे और अच्छे स्थान में जोडेंगे तो यह साधु बन जाएगा तो?’ लेकिन यह तो सोचो कि
जन्म से, बाल्यकाल से यदि बालक को संस्कारी बनाओगे, तो बाहर निकलेगा
यानी साधु बनेगा तो वह दिवाकर रूप बनेगा। और घर में रहेगा तो भी दीपक जैसा
कुलप्रकाशक बनेगा। दिवाकर बनने वाला जग को प्रकाशित करेगा और दीपक बनने वाला कुल
को प्रकाशित करेगा। किन्तु नाटक में, सिनेमा के कीडे बनकर
और मौज-मजे में रहने वाले बनाओगे तो कैसे बनेंगे? जगत में निंदा कराए
और घर की बदनामी कराए वैसे। देव-गुरु-धर्म की मजाक कराए वैसे और मां-बाप की इज्जत
को मिटाए वैसे।-सूरिरामचन्द्र
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