मानव-भव में जिस
प्रकार का विवेक, ज्ञान और बुद्धि का सदुपयोग होना चाहिए, वह यदि न हो सके तो
फिर उक्त सदुपयोग के लिए अन्य कोई स्थान ही नहीं है। जब तक आत्मा और आत्म-धर्म का
स्वरूप स्पष्ट न हो, तब तक कोई भी व्यक्ति अपना यथोचित कर्तव्य पूरा नहीं
कर सकेगा और जिस दिन प्रत्येक व्यक्ति अपना-अपना कर्तव्य समझ जाएगा, उस दिन विग्रह स्वतः
ही शान्त हो जाएगा, संघर्ष स्वयं ही नष्ट हो जाएगा। स्वयं को स्वयं का
कर्तव्य समझ में नहीं आ रहा है, उसका मूल कारण यही है कि हम आत्म-तत्त्वों को भूल गए
हैं। ‘मुझे यह नश्वर देह त्याग कर एक दिन जाना है’, इस तरह का जो विचार
सदैव जीवित एवं जागृत रहना चाहिए, उसे भी हम भूल गए हैं। ‘इस संसार से जाने के
पश्चात मेरा क्या होगा?’, इसकी चिन्ता हृदय से नष्ट, लुप्त हो गई है और
उसका स्थान ले लिया है वर्तमान काल की चिन्ताओं ने।
प्रत्येक तत्त्वज्ञ
एवं तत्त्ववेत्ता यह स्वीकार करता है कि ‘यदि अपना भावी सुखमय
बनाना हो तो वर्तमान कष्टों की चिन्ता त्याग देनी चाहिए’। मात्र वर्तमान की
दृष्टि से तो सार-असार का विवेक स्वतः ही नष्ट हो जाता है। वर्तमान परिस्थिति कैसी
भी हो, पर ‘भविष्य में क्या होगा’, उसका विचार तो सर्व
प्रथम हमें कर लेना चाहिए। यदि हम व्यवहार में भी देखें तो व्यापारी भावी लाभ की
आशा में क्या कुछ कष्ट नहीं उठाता है? उसका मन, वचन और काया अहर्निश
किस विचार में लीन रहते हैं? इससे स्पष्ट हो जाता है कि वह भविष्य के प्रति अधिक
सजग रहता है। यदि अपने भावी का विचार करने के स्थान पर मनुष्य केवल अपने वर्तमान
से ही लिपटा रहे, तो वह अपने कर्तव्य से च्युत होता है, पथभ्रष्ट होता है, जिससे अनेक अनिष्टों
की उत्पत्ति स्वतः ही हो जाती है।
अनंत शक्ति-निधान आत्मा
जिस तरह की चिन्ता, विकल्प एवं अपार आधि (मानसिक चिन्ता, व्यथा), व्याधि (बीमारी) और
उपाधि (उपद्रव, अशान्ति) अनुभव कर रही है, उन सबको विनष्ट करने
के लिए हमें एक बार दीर्घदर्शी एवं दूरदर्शी बनना पडेगा, भावी विचारधारा का
पोषक बनना पडेगा। इसके विपरीत वर्तमान की क्रियाएं अर्थात् उदरपूर्ति, सन्तान का पालन-पोषण, ऐशोआराम का जीवन
व्यतीत करना आदि क्रियाएं भला कौनसी आत्मा नहीं करती? सभी करते हैं।
जिन्हें मनुष्य तुच्छ जन्तु समझता है, वे भी अपने आवास के
लिए स्थान बना लेते हैं, अपनी वर्तमान आवश्यकताओं का संचय करते हैं और विपत्ति
आती देख भाग छूटते हैं। इस तरह वर्तमान के लिए कुछ न कुछ प्राप्ति की भावना तो
सामान्य पामर जन्तुओं में भी विद्यमान रहती है। फिर उन पामर जन्तुओं में और
मनुष्यों में क्या फर्क रह जाता है? मानव जीवन की
सार्थकता के लिए तो भावी का चिन्तन जरूरी है।-सूरिरामचन्द्र
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