बुधवार, 15 जुलाई 2015

शिष्ट पुरुषों के आधीन रहो



पराई वस्तु के प्रति लगा हुआ मोह और उससे लिप्त अपनत्व हटाकर अपने स्वरूप की ओर आत्मा मुड जाए, उसके लिए धार्मिक क्रियाओं के विधि-विधान, प्रवचन आदि के माध्यम से यह सब प्रयत्न हो रहा है। जब तक जड पदार्थों के प्रति आप में अरुचि उत्पन्न नहीं हो, जड वस्तु जाने पर आपको हर्ष न हो, उसे सुखकर मानने की आपकी बुद्धि नहीं मिटेगी और जब तक जड पदार्थों को प्राप्त करने और उन्हें संभालने-सहेजने में ही आपका जीवन व्यतीत हो रहा है, तब तक आप सत्य कैसे प्राप्त कर सकेंगे? फिर यदि आपको कोई प्रश्न कर बैठे कि आपने प्राप्त क्या किया? उस समय आप क्या यह कहेंगे कि मैंने पांच बंगलों का निर्माण कराया, अमरीका व जापान में अपनी दुकानें खोली और मैं अनेक कम्पनियों का प्रधान बना। परन्तु, इन सब कार्यों में आपका अपना क्या है? इनसे क्या आपका जीवन सुधर सकेगा? आज के मानव-जीवन के लेखे-जोखे में मात्र यही वस्तु है, जिसमें तत्त्व का सर्वथा अभाव है।

ज्येष्ठ व्यक्तियों का अपनी संतान के प्रति क्या कर्तव्य है? बालक में एक भी दोष-अवगुण प्रविष्ट न हो जाए और अधिकतम गुणों का विकास हो, उसकी पूर्ण सावधानी रखने का कर्तव्य बडों का है। जब पांव में कांटा चुभ जाता है, तब उससे भी तेज नोक वाली सुई से उसे निकालना पडता है। यदि सुई से भी नहीं निकले तो उसे कटवाना पडता है, चीरा लगाना पडता है, खून निकलता है। लेकिन, ऐसा इसलिए करना पडता है कि वह पक न जाए। इतना छोटा-सा कांटा यदि पैर में रह जाए तो वह सारी देह बिगाड देता है, देह में सडांध लग जाती है और प्राण चले जाते हैं; तो फिर असंख्य अवगुणों के योग से अपनी आत्मा की क्या दशा होगी? आत्मा में कोई दोष प्रविष्ट हो जाने पर क्या कांटे के समान उस दोष को अपने भीतर से निकालने का कभी आपने परिश्रम किया है?

जहर खाने से प्राण चले जाते हैं, ऐसा आपने सुना है, इसलिए मानते हैं या आपको स्वयं को ऐसा अनुभव है? विनाशक वस्तुओं का कभी अनुभव नहीं किया जाता। शिष्ट पुरुषों के कथनानुसार तत्काल ऐसी बातों पर विश्वास कर लेना चाहिए। आज तो वातावरण ऐसा विषाक्त हो गया है कि शास्त्रों और शिष्ट पुरुषों ने जो कुछ कहा है, वह सब जैसे निरर्थक है, व्यर्थ है।परिणाम यह हुआ कि सत्संगति, उत्तम शास्त्रों का अध्ययन-मनन सबकुछ चला गया और अर्थ एवं काम की साधना में आप शक्तिशाली, प्रमुख एवं प्रवीण बन गए। धन अर्जित करने के साधारण स्वार्थ हेतु आपको अधीनता, विवेक और विनय संभालने पडते हैं तो फिर आत्म-कल्याणार्थ, आत्मा की अनंत शक्ति प्राप्त करने के लिए आपको सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की शरण स्वीकार करनी चाहिए या नहीं? आत्म-कल्याण तो इसी से संभव है।-सूरिरामचन्द्र

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