‘हमें कष्ट तथा
अशान्ति नहीं होनी चाहिए और स्वास्थ्य, सुख एवं सम्पत्ति
चाहिए’, ऐसा चाहने भर से क्या होगा? सुख कहीं मार्ग में
भटकता फिर रहा है जो आपके ढूंढते ही तुरंत मिल जाए? उसकी प्राप्ति के
लिए तो आपके प्रयास भी वैसे ही उत्तम होने चाहिए। जब आपका अंत निकट हो, तब हीरे-मोतियों के
हारों, परिवार के सदस्यों एवं धन-धान्य से आपको शान्ति नहीं
मिलेगी। विपत्ति के समय आपको दुःखी नहीं होने दे और आनंदमय वातावरण में आपको रख
सके, वह वस्तु कौनसी है? किसी कवि ने कहा है कि-
धर्मस्य फलमिच्छन्ति, धर्म नेच्छन्ति
मानवाः ।
फलं पापस्य
नेच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति सादरा ।।
धर्म का फल सुख, सम्पत्ति और
सुस्वास्थ्य सब लोग चाहते हैं, परन्तु यदि उन्हें कहा जाए कि ‘धर्म कीजिए’, तो कहते हैं कि ‘शरीर, स्वास्थ्य अनुकूल
नहीं है, अन्य संयोग प्रतिकूल चल रहे हैं, समय का अभाव है, सुस्ती आती है’ आदि। तनिक मर्यादा
पूर्वक रहने वाले तो इतना ही कहते हैं, पर जो मर्यादा त्याग
कर धर्म-विरूद्ध आचरण करने वाले हैं, वे तो कुछ और ही
कहेंगे। पाप का फल अशान्ति, कष्ट एवं व्याधि है। इसे कोई हृदय से चाहता नहीं है, परन्तु पाप को
त्यागने की बात के प्रति भी प्रेम विरलों में ही होता है।
धर्म का फल सबको
चाहिए, पर धर्म कोई नहीं चाहता और पाप का फल किसी को भी नहीं
चाहिए, लेकिन पाप-त्याग की भावना भी तो अच्छी नहीं लगती। ऐसी
विषम परिस्थिति और विपरीत दशा में सुख-शान्ति भला कहां से प्राप्त हो सकती है? आज तो लोग कहते हैं
कि ‘आधि और व्याधि की तो आवश्यकता नहीं है, पर उपाधियें तो काम
की है, वे चाहिए।’ आधि से तात्पर्य है
मन का कष्ट और व्याधि से तात्पर्य है शारीरिक कष्ट; जो किसी को भी नहीं
चाहिए। परन्तु, इन दोनों को उत्पन्न करने वाली उपाधि का परित्याग
करने की बात किसी को अच्छी नहीं लगती। अरे, परित्याग करने की
बात तो दूर रही, उसे प्राप्त करने की आशा का परित्याग भी नहीं किया जा
सकता। आशा का परित्याग करने की बात तो दूर रही, परन्तु उस उपाधि को
प्राप्त करने के लिए जो अनीति का सहारा लेते हैं, उसका भी भय नहीं है।
अनीति करने के लिए भय तो दूर रहा, पर आज तो अनीति की प्रशंसा के पुल बांधने में भी लोग
नहीं लजाते। उल्टा ऐसा कहते हैं कि ‘मैं कैसा चतुर हूं? कैसी उत्तम मैंने
शिक्षा प्राप्त की है? मेरी अनीति किसी को ज्ञात हुई क्या?’ आज पाप की वृद्धि
होती जा रही है, मृषाभाषण, लोभ, लालच, भोग आदि दोष मूल से
बढते-बढते वृक्ष बनते जा रहे हैं। जब पाप का भय नहीं रहता, तब धर्म के प्रति
प्रेम भला कैसे होगा? पाप के भय के बिना उत्तम भावनाएं, उत्तम विचार भला
कैसे पनपें? -सूरिरामचन्द्र
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