मनुष्य यदि बाह्य
राग-रंग में ही अपनी स्थिरता और वर्तमान ऐशोआराम में ही जीवन के आनन्द की कल्पना
करले, उसमें ही स्वर्ग एवं मोक्ष की कल्पना कर डाले तो उस प्रकार के व्यक्तियों को
तो कितने ही सर्वोत्तम धर्मशास्त्र भी भार स्वरूप ही लगेंगे। उन्हें तो हित-शिक्षा
देने वाले भी दुश्मन की तरह नजर आएंगे। इसका एक बहुत बडा दुष्परिणाम यह पैदा होगा
कि स्वयं के दोष सुनने की शक्ति सर्वथा नष्ट हो जाएगी और गुण प्राप्ति का द्वार
सदा के लिए बन्द हो जाएगा।
प्रश्न यह है कि हम
में अनेक अभाव हैं, यह समझ जाने में ही हमारा उदय और कल्याण है अथवा हमें
हमारे स्वयं के गुण गा-गा कर कोई सुनाए उसमें हमारा उदय और कल्याण है? आज अधिकांश परिस्थिति
यही है कि अपने अवगुण सुनने की शक्ति हम में रही ही नहीं। यदि कोई व्यक्ति हमें
अपने अवगुणों के विषय में कुछ कह दे तो हम पर जैसे बिजली गिर जाती है, हमें वह बहुत ही
अन्यायपूर्ण लगती है। लेकिन, आत्म-ज्ञान होने पर तो यदि कोई हमें अपने अवगुण बताने
वाला मिलेगा तो हम उसका अत्यंत उपकार मानेंगे। ऐसी हमारी भावना होगी। इस संसार में
झूठे अथवा सच्चे अथवा होते हुए भी अथवा नहीं होते हुए भी गुण-गायक तो अनेक मिल
जाएंगे। वे तो कहेंगे कि ‘खड्डे में यह गिरेगा, मैं बुरा क्यों बनूं?’
बुरा बनकर अवगुण
बताए कौन? कडवी औषधि की घूंट तो माता ही पिलाएगी न? और अपनी संतान की
लातें और तिरस्कारपूर्ण शब्द भी माता ही सहती है न? सबकुछ सहन करके भी
औषधि पिलाने के लिए तत्पर मां ही बनती है? क्योंकि उसके लिए तो
बालक की लातें, तिरस्कार और गालियें खाकर भी बालक के पेट में औषधि
चली गई, यही हर्ष की बात है। माता जानती है कि ‘बालक में उत्पन्न
रोग नष्ट करने की औषधि किसी तरह एक बार उसके पेट में चली जाए तो यथेष्ट है’। कारण यह है कि
उसमें उसका जीवन समाविष्ट है।
इसी तरह विपक्षी के
क्रोध का कोप-भाजन बनकर भी उसके अवगुण बताने का प्रयास कौन करे, साहस कौन करे? जो सच्चा हितचिंतक
होगा, वही ऐसा साहस करेगा। अवगुण बताने वाला जब हमें अपना हितचिंतक लगने लगता है, तब हमारे अवगुण
शनैः-शनैः नष्ट होने लगते हैं। ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करने के लिए हमें अपना
वर्तमान कष्टमय एवं कटु भी बनाना पडेगा। अपने अवगुण देखने और सुनने की इच्छा जब
हममें उत्पन्न होगी, तभी ‘सत्य कहां हैं?’ उसे ढूंढने की
मनोवृत्ति अनायास ही उत्पन्न होगी, जिससे हमें अच्छी
तरह समझ में आ जाएगा कि ‘यदि मुझे अपनी आत्मा का सुधार करना हो तो अपने भीतर
समाविष्ट अवगुणों को समझना होगा, उनका स्पष्ट आभास प्राप्त करना होगा।’ ऐसा होने पर उसके
हृदय में अपने अवगुण सूचक के प्रति सद्भाव, सम्मान एवं
श्रद्धा-भक्ति जागृत हुए बिना नहीं रहेगी।-सूरिरामचन्द्र
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