जिस प्रकार पाप नीति
का विनाशक है, उसी प्रकार पाप का मूल इन्द्रियों की आधीनता है। हमें
पाप क्यों करना पडता है? सुन्दर-मधुर शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श की
प्राप्ति के लिए ही हमें पाप करना पडता है। आँखें सौन्दर्य देखना चाहती हैं, कान मधुर आवाज सुनना
चाहते हैं, नाक को मोहक गंध की आवश्यकता है, जीभ को सुन्दर-मधुर
रस चाहिए और स्पर्शेन्द्रिय को सुन्दर-सुकोमल स्पर्श चाहिए। बस, इन्हीं पांच इन्द्रियों
की आधीनता ही पाप करवाती है। सब इन्द्रियों का पोषण करने वाली जीभ-रसना है। समस्त इन्द्रियों
को पुष्ट बनाकर बहकाने वाली यह जीभ ही है। यह जीभ ही हमारा खान-पान एवं
भक्ष्याभक्ष्य का विवेक नष्ट कर देती है। इस जीभ को स्वच्छन्दतापूर्वक उसका पोषण
करने वाली सब सामग्रियां देने के कारण सब इन्द्रियों में पशुता आ गई। इन इन्द्रियों
पर जितना नियंत्रण कम होगा, उतना पाप अधिक होगा। सब इन्द्रियां इच्छानुसार
वस्तुओं का प्रयोग करने लगेगी तो फिर पाप का भय नहीं रहेगा और जब पाप का भय नहीं
रहेगा तो नीति भी नहीं रहेगी।
इन्द्रियां जितना
मांगे उतना हम यदि उन्हें देते जाएं तो क्या हमारा जीवन सुखमय बन जाएगा? जीमन में भोजन करके
घर जाकर सुख पूर्वक कौन सो सकता है? जीमन में
उत्तम-उत्तम पदार्थ आपकी थाली में आ जाएं तो उन्हें खाकर भी आनंद कौन प्राप्त कर
सकेगा? वही व्यक्ति सुख प्राप्त कर सकेगा, जो अपनी जीभ (रसना)
पर नियंत्रण रख सकता है। जीभ के आधीन बनी हुई आत्मा गिरेगी, अवश्य गिरेगी। जो
नियंत्रण छोडकर खाता रहता है, वह घर जाकर सुख से कभी नहीं सो सकता, क्योंकि उसकी
व्याकुलता बढ जाती है और उसे अनेक प्रकार की व्याधियां हो जाती है। व्याधि होने पर
भी अनेक व्यक्ति भोजन करते समय पुनः नियंत्रण खो बैठते हैं, वे इच्छानुसार खाने
लगते हैं।
इन्द्रियों के आधीन
होते ही पाप का भय चला जाता है। पाप का भय मिटते ही नीति मिट जाती है और नीति चली
जाए तो फिर क्या मनुष्य, वास्तव में मनुष्य रह पाएगा? उसके मानवीय मूल्य
टिक पाएंगे? क्या उसमें पशुता-पाशविकता का संचार नहीं हो जाएगा? निश्चय ही पाप का भय
निकलते ही मनुष्य अपनी मनुजता खो देगा। वह तो केवल आकृति से मनुष्य दिखेगा। फिर
उसमें अपने-पराये का, भले-बुरे का, लाभ-हानि का विवेक
नष्ट होते देर नहीं लगेगी। उसकी विचार-क्षमता नष्ट हो जाएगी। भले-बुरे का विवेक
बताने वाली विचार-शक्ति चली जाए तो फिर उसके जीवन में रहेगा क्या? उसका जीवन निरर्थक
हो जाएगा। अतः समस्त पापों की जड इन्द्रियों की आधीनता है। इन्द्रियों की इस
आधीनता से बचने के लिए ही महापुरुषों ने इन्द्रिय-निग्रह पर जोर दिया है। और इन्द्रियों
पर नियंत्रण, निग्रह के लिए ही मन पर संयम रखने को कहा गया है और
तप का प्रावधान किया गया है।-सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें