संसार के समस्त
प्राणी, शरीर आदि बाह्य पदार्थों की शुद्धि में तो कमी नहीं
रखते। बडे से बडे प्राणियों से लगाकर छोटे-छोटे जन्तु भी बाह्य साधन प्राप्त करने
के लिए भरसक प्रयत्न करते हैं। अपनी देह की रक्षा करने के लिए संसार में कौन
प्रयत्न नहीं करता? जिन जंतुओं को हम सर्वथा क्षुद्र समझते हैं, वे भी अपने शरीर की
रक्षा और पोषण के लिए अनेक प्रयत्न करते हैं, जो अनुभव सिद्ध बात
है। परन्तु, उत्तम आत्माओं ने तो आत्म-शुद्धि का मार्ग ग्रहण करने
के लिए ही जगत के जीवों को उपदेश दिया है।
शरीर आदि बाह्य
वस्तुओं की हम चाहे जितनी साधना करें, सार-संभाल करें, इससे शरीर में निवास
करने वाली आत्मा को क्या लाभ? केवल ‘नास्तिक दर्शन’ के अतिरिक्त सभी
दार्शनिकों ने आत्म-तत्त्व को स्वीकार किया है। प्रत्येक दर्शन आत्म-तत्त्व मानता
है। आत्मा देह से भिन्न है। देह के उदय से आत्म-शुद्धि होती है, ऐसा भी तत्त्वज्ञानी
नहीं मानते। तत्त्वज्ञानी पुरुषों की दृष्टि से तो शरीर एक साधन मात्र है। साधन
रूप शरीर को साध्य मानकर समस्त विश्व के प्राणी अपना जीवन शरीर की सेवा में ही लगा
देते हैं। यह बात उत्तम आत्माओं को बहुत अखरती है। जिस वस्तु को निश्चित रूप से
छोडकर जाना है, रखना चाहें तो भी जो रहने वाली नहीं है, उसकी सेवा में जो
अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर दें, उन्हें हम बुद्धिमान
कैसे कह सकते हैं?
ज्ञानी पुरुषों ने
मनुष्यों को बुद्धिमान और शक्ति-सम्पन्न माना है, इसीलिए आत्मा संबंधी
बात बताई है। अन्य प्राणियों में उस प्रकार की शक्ति नहीं है। इतना होने पर भी
मनुष्य यदि बाह्य पदार्थों में लीन होकर उन्हीं में इच्छानुसार अपना जीवन नष्ट कर
दें तो यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और भयंकर बात होगी। मानव-जीवन बडी कठिनाई से
प्राप्त हुआ है, यह कौन नहीं मानता? अमुक समय के पश्चात
यह जीवन नष्ट हो जाएगा, मौत कब आएगी उसका समय किसी को पता नहीं है, एक क्षण का भी भरोसा
नहीं है, जीव मां के पेट में भी मर सकता है, जन्म लेते ही मर
सकता है, बचपन में, तरुणावस्था में, जवानी में, प्रौढावस्था में, या बुढापे में, मौत कभी भी आ सकती
है, यह भी सब जानते हैं। फिर भी इतनी कठिनाई से प्राप्त यह जीवन जो अमुक समय में
नाशवान है, निष्फल न हो जाए, उसके लिए आप क्या कर
रहे हैं? आज बडे-बडे मनुष्यों के पास भी लाखों की सम्पत्ति, बडी-बडी दुकानें और
भारी-भारी सिफारिशों के अतिरिक्त कुछ नहीं है। आप भौतिकता की अंधी दौड में बेभान
होकर दौडे जा रहे हैं, शरीर को साध्य मानकर उसके लिए साधन जुटाने की जुस्तजू
में ही जीवन पूरा कर रहे हैं, आत्मा के लिए क्या कर रहे हैं, इसका विचार तो करिए।
शरीर तो आत्मा के कल्याण के लिए साधन मात्र है, साध्य तो आत्मा है।-सूरिरामचन्द्र
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