जिस आत्मा में
प्राणी मात्र के कल्याण की उर्मियां नहीं उठती, जो आत्मा हृदय से यह
नहीं चाहती कि प्राणी मात्र परहित में सक्रिय हो, जो आत्मा दोषों के
नाश में उदासीन है और जिस आत्मा में सबको सुखी देखने की शक्ति नहीं है; उस आत्मा के जीवन
में यदि अशान्ति हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। जिस शान्ति के लिए हम लालायित
हैं, उस शान्ति की प्राप्ति के लिए साधन-सामग्री प्राप्त किए बगैर चलेगा ही नहीं।
परन्तु, आज के शान्ति चाहकों की तो भावना ही विलक्षण है।
दूसरों के सुख देखने की शक्ति भी दिन-प्रतिदिन विलीन होती जा रही है। दूसरे को
सुखी देखते ही वह चौंक जाता है कि मैं तो दुःखी हूं और वह सुखी क्यों? यह सोच ईर्ष्या है, विनाश, विध्वंश और अशान्ति
का कारण है।
यदि इस तरह दूसरे को
सुखी देखकर चौंकें नहीं, ईर्ष्या नहीं करें और उसे सुखी व अपने को दुःखी देखकर
सुख-दुःख के कारणों का चिंतन-विवेचन करें; साथ ही साथ अपने
दुःख के कारणों को दूर करें व सुख के कारणों को अपनाएं तो-तो उसी समय से शान्ति का
साक्षात्कार होने लग जाए; लेकिन ऐसा करने की बजाय आज तो अधिकांश लोग सामने वाले
को सुखी देखकर चौंकते हैं, ईर्ष्या करते हैं और विचार करते हैं कि ‘उसे अपना सुख हमें
भी बांटना चाहिए, नहीं तो उससे उसका सुख छीन लेना चाहिए, जब तक हम दुःखी हैं, किसी और को सुखी
होने का क्या अधिकार है?’ यह अशान्ति का विस्तार है।
इस विचारधारा के
परिणाम स्वरूप आत्मा के ऊपर जो नियंत्रण था, वह समाप्त हो गया, मनुष्यों के
मर्यादापूर्ण जीवन में परिवर्तन आ गया और अन्तर्भावना का उक्त रूपक बाहर आया; इसके ही योग से
चारों ओर अशान्ति की भीषण ज्वाला विशेष रूप से धधक रही है। जिस समय ऐसे विचारों का
साम्राज्य हो, उस समय कोई सुखी हो ही नहीं सकता। आज साधन तो अनेक
हैं, पर शान्ति का नामोनिशान नहीं दिखता। सच्चा साधन वही कि जो साध्य को सिद्ध कर
सके। उसका नाम साधन नहीं है जो हमें साध्य से दूर ला पटके। इस सत्य को आज का विश्व
भूलता जा रहा है। साधन उसे माना जाना चाहिए जो जीव के लिए सहायक हो, बोझ रूप नहीं हो।
विवेक से यदि हम सोचें तो आज के साधन जीवन पर भार हैं अर्थात् जीवन में बोझा बढाने
वाले हैं। सचमुच जहां स्वयं को ही अपनी आत्मा के हित की चिन्ता नहीं, वहां समस्त विश्व के
कल्याण की भावना और प्राणी मात्र परहित में लीन रहे, ऐसी उत्कृष्ट भावना
आएगी कहां से? स्वयं दोषपूर्ण हो और दोष दूर भी नहीं करना चाहता हो, वहां ‘लोक में सबके दुःख
दूर हों’, ऐसी भावना भी आएगी कहां से? ‘मैं दुःखी हूं तब
दूसरे सुखी क्यों?’ यह दुष्ट विचार, यह ईर्ष्या जब तक
हृदय में है, तब तक ‘जगत के सब जीव सुखी
हों’, ऐसा बोलना थोथापन है।-सूरिरामचन्द्र
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