सुख-दुःख का स्वरूप और निदान
मर्यादा पुरुषोत्तम
श्री राम के अनुज श्री भरत परिणामदर्शी थे। इसीलिए अथाह भोग सामग्री और सत्ता
मिलने पर भी उसमें वे मूर्छित नहीं हुए और कब यह
संसार छूटे, ऐसी भावना में रमण करते
रहे। पुद्गल-योग से प्राप्त हुआ बडा से बडा सुख भी श्री भरत को दुःखरूप लगता था।
कारण कि इस संसार के सुखों में लीन बना हुआ आत्मा ज्यों-ज्यों सुख भोगता जाता है, त्यों-त्यों भविष्य के
लिए भयानक दुःखों को खरीदता जाता है, ऐसा श्री भरत जी समझते थे, क्योंकि वे परिणामदर्शी
थे। आप भी ऐसे ही परिणामदर्शी बनेंगे तो आपको भी इस मनुष्यलोक के ही नहीं, देवलोक के भी सुख
दुःखरूप लगे बिना नहीं रहेंगे।
दुनिया के दुःख नहीं
चाहिए, यह बात सत्य है और सुख
चाहिए यह बात भी सत्य है। फिर भी दुनिया के जीव सुख की इच्छा से ऐसा प्रयत्न करते
हैं कि जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें दुःखमय दशा प्राप्त हो जाती है। कारण कि उन्हें
सच्चे सुख का ज्ञान ही नहीं है। उनको सच्चे सुख के उपाय की जानकारी ही नहीं है।
दुःख के स्वरूप और दुःख के निदान की भी खबर नहीं है। सुख और दुःख दोनों का स्वरूप
समझ लें और उसके निदान का खयाल आ जाए तो ज्ञानी कहते हैं कि ‘आत्मा को ऐसा लगे कि
संसार रूपी भट्टी में मैं सिका जा रहा हूं’। उसको चैन नहीं पडेगा।
दुनिया जिसको सुख मानकर पागल के समान जिसके पीछे दौड रही है, यह सुख उसको भयंकर लगता
है। यह भौतिक सुख कैसे अनर्थों का सर्जक है, यह बात जिसे समझ में आ
जाए, उसकी दिशा ही बदल
जाएगी।
एक भी पौद्गलिक वस्तु
के योग के बिना का जो सुख है, वही सच्चा सुख है। दुःखमात्र का मूल पुद्गल का
योग है। जहां पुद्गल का योग नहीं, वहां दुःख का नाम नहीं और सुख की कमी नहीं। आज
तो बहुत लोगों को घबराहट यह होती है कि ‘कोई भी पुद्गल वस्तु के
योग के बिना सुख होता ही कैसे है?’ यह आकुलता, यही मिथ्यात्व है।
जिसका मिथ्यात्व जाता है, उसकी घबराहट स्वतः चली जाती है।
बुद्धिपूर्वक विचार
करें तो इस विचक्षणता को समझा जा सकता है। दुनिया को पौद्गलिक वस्तुओं का वियोग
होता है तो दुःख होता है न? वियोग का दुःख क्यों? संयोग में सुख माना
इसीलिए न? संयोग ही न होता तो
वियोग कैसे होता? कितनी ही बार पौद्गलिक वस्तुओं का वियोग दुःख
उत्पन्न करता है तो कितनी ही बार पौद्गलिक वस्तुओं का संयोग दुःख उत्पन्न करता है।
मनपसंद चला जाए तो भी दुःख और मनपसंद मिले तो भी दुःख। इसलिए वस्तुतः सुख पौद्गलिक
वस्तुओं के न वियोग में है और न संयोग में। पौद्गलिक वस्तुओं का स्वभाव स्थिर रहने
का नहीं है। सडन, गलन, पतन पुद्गल का स्वभाव है, इसलिए इसके योग में सुख
की कल्पना, यही दुःख की जड है।
आत्मा इसी में लीन रहने के कारण दुर्गति में डूब जाती है। जो वस्तु दुःख की
हेतुभूत होती है, उसको सुखरूप मानना मूर्खता है।-आचार्य श्री विजय
रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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