रविवार, 8 अप्रैल 2012

विवेकी बनो


पाप के कारण दुःख आता है', इस बात को कौन नहीं जानता? आर्य देश के थोडे-बहुत भी संस्कार जिनमें हों, वे इतना तो अच्छी तरह से जानते ही हैं कि पाप बिना दुःख नहीं और धर्म बिना सुख नहीं। इतना जानने पर भी यदि कोई सुख पाने के लिए पापाचरण करे, तो क्या यह उसकी विवेकशून्यता नहीं है? इस विवेकशून्यता का निर्धार किया जाए तो आज समाज में अधिकांशतः विवेकशून्यता ही दृष्टिगोचर होगी। वही व्यक्ति विवेकशील, विवेकवान कहा जा सकता है, जो दुःख का जन्मस्थान पाप है', यह जानने और मानने के बाद पाप करने से डरे, पाप करने से बचे और कदाचित् संयोगवश पाप हो जाए अथवा निर्वहन के लिए गहन मजबूरी से कोई छोटा पाप करना पड जाए तो उसके लिए गहरा पश्चाताप हुए बिना नहीं रहे।

एक सवाल खडा हो सकता है कि पाप से दुःख आता है', यह जानने और मानने के बावजूद भी अधिकांश लोग पाप का आदर क्यों करते हैं? इसका जवाब है कि प्रथम तो यह जानना और मानना अंतर्हृदय से नहीं होकर सतही है, इसमें दृढ विश्वास की कमी है और दूसरा पाप का आदर करने वालों ने दुनियावी पदार्थों में सुख की कल्पना की है, वे मात्र सुखाभास को सुख मानने की भूल कर रहे हैं, इसीलिए पाप का आदर कर रहे हैं। वे विवेक-बुद्धि का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। ज्ञानी फरमाते हैं कि दुनियावी पदार्थों के योग से कुछ भी सुख नहीं मिलता है, ऐसा नहीं है; किन्तु वह सुख विष-युक्त दूध के समान है। अल्पकाल के लिए आनंद, किन्तु परिणाम में भयंकर विनाशकारक वह सुख है। इसी कारण ज्ञानी महापुरुष उस सुख को सुख न कहकर दुःखरूप मानने का उपदेश देते हैं। समस्त पौद्गलिक सुखों को दुःखरूप मानकर आत्म-सुख पाने के लिए विवेक सहित धर्म का सेवन करने का निर्देश देते हैं।

उत्तम धर्माचरण के लिए दुःख के मूल हिंसा, असत्यवाद, अदत्तादान, अब्रह्म तथा परिग्रह का त्याग करना चाहिए। शाश्वत सुख आत्मा में रहा होने से आत्मा के स्वभाव को पहचान कर, उस स्वभाव को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए। आत्मा का स्वभाव अनाहारी है, अतः जीवन को तपोमय बनाकर अनाहारी बने रहने का अभ्यास करना चाहिए। आत्मा का स्वभाव राग-द्वेष से रहित है, अतः राग-द्वेष से पर बनने के लिए क्षमा और समता धारण करनी चाहिए। ज्ञान, दर्शन और चारित्र, यह आत्मा का स्वभाव है, अतः अप्रमत्त भाव से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए अपनी आत्मा को जोडना चाहिए। इस प्रकार के आचरण से ही आत्म-स्वभाव प्रकट होगा और सच्चे सुख का अनुभव होने लगेगा। चरम सुख व परम शान्ति प्राप्त करने के लिए यही सच्ची और विवेकपूर्ण मेहनत होगी। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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