मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

श्री रामचन्द्रजी का विनय

हाथ में आई हुई गद्दी चली गई फिर भी रामचन्द्रजी ने क्यों नहीं कहा कि यह मेरा हक है, मैं क्यों छोडूं’? ऐसे तो रामचन्द्रजी ही राज्य के अधिकारी थे, प्रजा का समर्थन भी उन्हीं के साथ था। यदि वे पिताजी के निर्णय का निषेध करते तो प्रजा भी उनके पिताजी का नहीं, उनका साथ देती। फिर भी रामचन्द्रजी ने अपने अधिकार की मांग नहीं की। अपने अधिकार की बात छोड देना, यह बुद्धिमत्ता है या पागलपन? आज की परिस्थिति तो यह है कि एक ईंच जमीन के लिए सगे-संबंधी न्यायालय में चले जाते हैं।
पिताजी तो रामचन्द्रजी को ही राज्य देना चाहते थे, प्रजा भी यही चाहती थी, लेकिन एक माँ और वह भी सौतेली, वह राज्य से वंचित कर दे, यह कैसे सहा जाए? यह कोई छोटा-सा अन्याय नहीं था। मुझे राज्य का मोह नहीं है, लेकिन पिताजी अन्यायी बनकर, मेरी सौतेली मां के अधीन बनकर मेरे साथ अन्याय करो, यह मैं सह नहीं सकता। इसलिए ही मुझे इसका विरोध करना है’, ऐसी बात रामचन्द्रजी कह सकते थे, लेकिन ऐसा कोई बहाना रामचन्द्रजी ने नहीं बनाया। आज तो पैसे के लिए बेटे, बाप के सामने लडने के लिए तैयार हो जाते हैं और कहते हैं कि मुझे पैसे की पडी नहीं है, परन्तु पिताजी जब अन्याय कर रहे हों, तब उसे कैसे सहन किया जाए, इसलिए उनका भी निषेध करना चाहिए। इस प्रकार अनेक बातों में आज के लोग अधर्म को ही धर्म का और अनाचार को नीति का जामा पहना देते हैं।
इसके विपरीत, जब राजा दशरथ ने रामचन्द्रजी को बुलाकर कहा कि कैकेयी भरत के लिए राजगद्दी की मांग कर रही है, तो रामचन्द्रजी को पहले तो प्रसन्नता हुई, लेकिन दूसरे ही क्षण दुःख भी हुआ। उन्होंने कहा, ‘पिताजी! भरत जैसा धर्मप्राण मेरा भाई राज्य संभाले, यह तो प्रसन्नता और मेरे लिए गौरव की बात है, लेकिन आप मुझे इसके लिए पूछते हैं तो यह मेरे लिए दुःख की बात है, क्योंकि इससे मेरा अविनय लगता है। एक सुपुत्र के रूप में मेरे लिए यह शर्म की बात है कि मेरे पिता को मुझसे पूछना पडे
श्री रामचन्द्रजी ने यहां तक कहा कि आप राज्य के मालिक हैं, आप जिसे चाहें उसे राज्य दे सकते हैं और जो राजा बनेगा, मैं उसकी सेवा करूंगा। आप चाहे यह राज्य किसी चौकीदार या बंदी को दें, आपको मना करने का या उसे अनुमति देने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। फिर भरत तो मेरा भाई है, मुझमें और भरत में तो कोई फर्क ही नहीं है।कितनी बडी बात है यह और रामचन्द्रजी में कितनी विनम्रता?
यह दुनिया या मेरे पिता भले मुझे राज्य का अधिकारी मानें, लेकिन मुझे स्वयं ऐसी कोई लडाई नहीं करनी है।यह निर्धार रामचन्द्रजी का था। यह तभी संभव है, जब धर्म का जीवन में विशेष स्थान हो।-आचार्यश्री विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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