बुधवार, 25 अप्रैल 2012

आज मेरा दूसरा जन्म हुआ था!


मित्रों! आज 25 अप्रेल, 2012 है। अब से ठीक 25 वर्ष पूर्व 25.04.1987 की रात 12.40 बजे मुझ पर कुछ पेशेवर डकैतों ने कातिलाना हमला किया,जिसमें मेरे शरीर का एक अंग पूरी तरह कट गया। वे आए थे मुझे मारने और इसी के लिए उन्हें एक तथाकथित साधु, जो साधु है ही नहीं, वस्तुतः साधुता के नाम पर कलंक है और आज वह स्वयं अपने कर्मों की बदौलत सड रहा है,उसके शरीर का एक-एक अंग सड रहा है, उसने अपनी और अपने साथियों की रंगरेलियों की खबरों को दबाने, बंद करवाने के लिए मुझे लाखों रुपयों का प्रलोभन देकर खरीदने की कोशिश की और जब वह इसमें सफल नहीं हुए तो पेशेवर डकैतों से मुझे मारने का सौदा 12 लाख रुपयों में किया।
इन पेशेवर डकैतों में सेना के भगोडे और भीलवाडा की बैंक डकैती में साढे चार साल जेल में काट चुके शातिर अपराधी, जिसका पुलिस के साथ 32 घण्टे एनकाउंटर चला, जिसने एक तहसीलदार के हाथ-पांव काट दिए,ऐसा डकैत गजराज सिंह,केकडी, एक तहसीलदार का आवारा बेटा अजीतसिंह, पाली और एक शातिर अपराधी दिलीपसिंह चौधरी अजमेर से आए थे।
यहां उदयपुर से उन्होंने शराब पिलाकर चार लोगों को और अपने साथ लिया- ललित मेनारिया,उमाशंकर, अरुणकुमार और टेक्सी ड्राईवर दिलीपसिंह। मैंने इन सातों को पहली बार देखा था। मध्य रात्रि का समय था और पांच मिनिट में ही सारा घटनाक्रम घटित हो गया था। मेरी पत्नी ने शोर मचा दिया, जिस कारण इन सबको भागना पडा। मैं खून में पूरी तरह लथपथ था, शरीर से खून के फव्वारे छूट रहे थे,इसके बावजूद मैंने दौडकर उन डकैतों का पीछा किया और गाडी के नम्बर नोट कर लिए। खैर........घटनाक्रम लम्बा है, उसमें नहीं जाना चाहता। सभी अपराधी पकडे भी गए, उनकी हमने सिनाख्त भी करली और मुख्य अभियुक्तों का उनके अपने कर्मों से कोर्ट द्वारा सजा सुनाए जाने से पहले ही खात्मा भी हो गया। मेरी उन सब चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं है। मैंने अपने जीवन में कभी किसी को बददुआएं दी और ही किसी के प्रति प्रतिशोध की भावना रखी। जिसके कर्म जिसके साथ।
मैं यहां दूसरी बात बताना चाहता हूं। यह तो सामने से हुआ वार, जो खबरों से पीड़ित व्यभिचारियों ने करवाया। लेकिन, जिन लोगों, जिस संस्कृति के संरक्षण के लिए,जो इन व्यभिचारियों से पीड़ित और प्रताड़ित थे और जिन्हें मेरे लेखन से राहत मिली और उनकी बंद पडी श्वसन-क्रिया फिर से चालू हुई, जो अपने आपको उच्चाचारी मानते हैं,घटना से पूर्व जो मुझ में एक क्रान्तिवीर की छवि देखते थे;वे ऐसे दुम दबाकर भागे और ऐसे हो गए कि जैसे मुझे पहिचानते भी हों;यह जो तथाकथित ऊंचे चारित्र वालों को भयंकर कोटि का विश्वासघात मेरे साथ हुआ,इसने मुझे आहत किया,भयंकर रूप से तोड दिया। यह आज भी मुझे बहुत वेदना देता है।
इस व्यवहार पर मुझे कई बार जब विचार आता है तो मैं कई-कई दिन आज भी सो नहीं पाता। हालांकि मेरे हौंसले बुलन्द हैं। मुझे मौत की परवाह तब थी और आज है। तब भी मैं न्याय-नीति पर था और आज भी मैं न्याय-नीति पर हूं। मेरे जीवन की यही नियती है, इसीलिए निम्न पंक्तियां मुझे हमेशा आगे बढाती हैं-
संघर्षों में सुख मिलता है
मैं खतरों का कब का आदी,
संघर्षों का अति चिरपरिचित।
झंझावातों, तूफानों में,
होती मेरी गति उत्कंठित।।
मेरे पथ में जैसा दिन है,
वैसी ही अॅंधियारी रातें।
मुझे भुलावे में क्या डाले,
यश-अपयश की धूमिल बातें।।
चलना चाहूं, चल सकता हूं,
रुकना चाहूं, रुक सकता हूं।
सब कुछ है मेरी इच्छा पर,
और किसी के कहे चलता हूं।।
नभ के सूरज की क्या महिमा,
वह रजनी में गायब रहता।
मैं मिट्टी का दीप ठीक हूं,
कृष्ण निशा में जग-मग रहता।।
हँसते-हँसते विष पीऊॅंगा,
बदले में अमृत बाँटूंगा।
धरती पर के दुःख द्वन्द्व की,
लोह श्रृंखलाएं काटूंगा।।
मैं काँटों के पथ पर चलता,
फूलों का नहीं मैं अभिलाषी।
नीति-न्याय के लिए लडूंगा,
संघर्षों से नहीं हटूंगा।।
संघर्षों में सुख मिलता है,
स्वाभिमान से जीवन चलता है।
मानवता के श्री चरणों में,
जीवन का अमृत मिलता है।।
मैं खतरों का कब का आदी,
संघर्षों का अति चिरपरिचित।
झंझावातों, तूफानों में,
होती मेरी गति उत्कंठित।।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें