मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

दुनिया के जीवों की विचित्र दशा


दुनिया के सभी प्राणी सुख चाहते हैं, परन्तु प्रवृत्ति तो ऐसी कर रहे हैं, जिससे दुःख ही बढता है। सभी जानते हैं कि बाग-बगीचा-बंगला-पेढी तथा जर-जमीन-जोरू, मृत्यु के बाद आज जिसे हम अपना कहते हैं, कोई साथ आने वाला नहीं है, यहां तक कि अपने शरीर को भी यहीं छोडकर जाना है। इतना जानने पर भी अपने शरीर के पालन-पोषण और दुनियावी भौतिक वस्तुओं को पाने के लिए सभी जीव न्यूनाधिक अंश में पापाचरण करते हुए डरते नहीं हैं।

आज पाप छोडने की शक्ति नहीं है, ऐसा कहने वालों में पाप बढाने वाली प्रवृत्तियां करने की शक्ति कहां से आ जाती है? यह बडा सवाल है। कई लोग कहते हैं, ‘क्या करें? भगवान ने हमें बुद्धि ही ऐसी दी है।पाप-बुद्धि हमारा ही दोष है। यह हमारे ही द्वारा पूर्व में किए गए कर्मों का परिणाम है। यह भगवान ने नहीं दी है। भगवान तो पाप-बुद्धि या धर्म-बुद्धि पैदा करते ही नहीं हैं। वे तो वीतरागी हैं। परमात्मा न तो जगत् के सर्जक हैं और न ही विध्वंसक हैं। जगत के सभी जीव अपने-अपने किए हुए कर्मों का ही फल प्राप्त करते हैं। जो पाप करता है, उसी को उस पाप की सजा होती है। परमात्मा ने तो जगत के यथार्थ स्वरूप का भान कराकर जगत् के सभी जीवों को सच्चे सुख का मार्ग बताया है। भगवान तो कहते हैं, ‘पाप से विमुख बनो और धर्म के सन्मुख बनो, यही कल्याण का मार्ग है।'

मनुष्य के जीवन में जब विपत्ति आती है, तब वह ईश्वर को दोष देता है, परन्तु वह समझता नहीं है कि सुख-दुःख के पीछे तो हमारे ही पुण्य-पाप काम करते हैं और सुख-दुःख की भावना के पीछे भी हमारी ही मनोवृत्ति काम करती है। मनोवृत्ति को वश में करलें तो सर्वत्र सुख ही है, दुःख का नाम नहीं। लेकिन, दुःख आने पर ईश्वर को दोष देने वाले, सुख आने पर अपनी होशियारी का घमंड करते हैं, इतना ही नहीं, वे ईश्वर को याद करना भी भूल जाते हैं। दुनिया के जीवों की यह विचित्र दशा है। सभी को यह समझना चाहिए कि अपने सुख और दुःख के सर्जक हम स्वयं हैं। पाप का फल दुःख है और धर्म का फल सुख है। दुःख पसन्द नहीं है तो पाप को छोडना चाहिए और सुख पसन्द है तो धर्म के आचरण में अपनी शक्ति लगानी चाहिए। आत्मा के आवरण टूट जाएं तो सच्चा सुख मिले। आप पाप का त्याग और धर्म का आदर व आचरण करने की आदत डालें। इसके लिए सद्गुरु के सानिध्य में रहकर पाप और धर्म की समझ प्राप्त करें। इससे आवरणों के नीचे ढंका हुआ (आवरणों से आच्छादित) आत्मा का निर्मल स्वरूप अवश्य प्रकट होगा, क्योंकि सच्ची समझ पाप मात्र का त्याग और धर्म का सम्पूर्ण स्वीकार करने की भावना पैदा करती है। भावना पक्की (दृढ) हो जाए तो शक्ति अवश्य प्रकट होती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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