बुधवार, 4 अप्रैल 2012

अधर्म, अन्याय, अनीति के प्रति सहनशीलता धिक्कारने योग्य है


सहनशीलता अच्छी बात है, यह बहुत बडा सद्गुण है, सच्चे रूप में मनुष्य में यह सद्गुण आ जाए तो भवसागर से उसका बेडा पार हो जाए। लेकिन, आजकल लोगों में प्रचलित तथाकथित सहनशीलता तो धिक्कारने जैसी ही है। सहनशीलता तो तभी प्रकट करनी चाहिए, जब खुद के ऊपर मुसीबतों का पहाड टूट पडा हो। प्रफुल्लता से जो दुःखों को सहन करता हो, वह है सहनशील। अधर्म, अन्याय, अनीति को सहन करना सहनशीलता नहीं है, कायरता है। ऐसा करने वाला अपरोक्ष रूप से तो अधर्म, अन्याय, अनीति को अपनी मौन स्वीकृति देता है, बढावा देता है। आज समाज की दुर्दशा इसीलिए है कि हम गलत चीज को रोकते नहीं, उसका पुरजोर विरोध नहीं करते।

चलने दो, अपने को क्या करना है’, ऐसे मंद विचारों और लापरवाही, कायरता से समाज सड जाता है और फिर सडे हुए समाज में हृदय को हर्ष या तृप्ति नहीं मिलती, आत्मकल्याण का मार्ग निष्कंटक नहीं रह जाता, समाज शोषित हुआ चला जाता है। खेत के पाक को पूर्ण रीति से फलने देने के लिए पास ही उत्पन्न हुए कचरे का नाश करना ही चाहिए।

जब धर्म के ऊपर संकट के बादल मंडरा रहे हों, विरोधी लोग देव-गुरु-धर्म की खुलेआम निंदा कर रहे हों, उन पर चोट पहुंचा रहे हों या फिर अन्याय-अनीति से धर्म की हानि हो रही हो, अहिंसा को जड-मूल से उखाडने की बातें चल रही हो, और ऐसे संकट की घडी में कोई सत्पुरुषों को सहनशील बनने की सलाह देता हो तो उस सलाह को वे कभी भी बर्दाश्त नहीं कर पाते। उस समय वे खुलेआम कहते कि ऐसे प्रसंगों पर सहनशीलताधारण करने वाला सहनशीलनहीं है, अपितु काम को बिगाडने वाला है, कायर है। यह सहनशीलता का गलत अभिप्राय है। अरिहंत परमात्माओं ने, हमारे महापुरुषों ने ऐसी सहनशीलता का सहारा कभी नहीं लिया, बल्कि इसके विपरीत ऐसी सहनशीलता का उपदेश देने वालों को धिक्कारते और समाज को भी सावधान करते कि ऐसे लोगों से बचकर रहना, अन्यथा तुम लुट जाओगे।

जब धर्म के ऊपर संकट के बादल मंडरा रहे हों, देव-गुरु-धर्म पर हमला हो, अन्याय हो; तब उसका प्रतिकार न करना मानवता के लिए घोर कलंक है, श्रावकत्व पर कलंक है, समाज पर कलंक है। सच्चा धर्मवीर ऐसे अन्याय के विरूद्ध अलख जगाता है। वह न तो स्वयं अन्याय करता है और न अपने सामने होने वाले अन्याय को देख सकता है। वह सदैव अन्याय और अनीति के प्रतीकार के लिए कटिबद्ध रहता है। अन्याय का प्रतिकार करने के लिए देव-गुरु-धर्म-समाज-संस्कृति के चरणों में वह अपने प्राणों को हंसते-हंसते बलिदान कर देता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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