गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

असत्य-अधर्म का साधु को विरोध करना ही चाहिए


यदि सत्य-धर्म का पक्ष रखना, असत्य-अधर्म का विरोध करना झगडा करना माना जाता है तो ऐसा झगडालू होना उचित है, साधु धर्म का तो यह प्रमुख दायित्त्व है। जिस साधु में अपने सत्य-धर्म के प्रति इतनी-सी निष्ठा भी न हो, वह पंच महाव्रतों का पालन किस प्रकार कर सकता है? यदि न्याय-नीति की बात करना, धर्म की रक्षा के लिए अडजाना, झगडा करना है तो ऐसा झगडालू होना, अपने सत्य-धर्म का पालन करना है। कहने वाले प्रभु महावीर को भी तो झगडालू कहते थे। श्री जिन आज्ञा का पालन करना और जिन आज्ञा विरोधी गतिविधियों पर अंकुश के लिए संघर्ष करना झगडा करना है तो ऐसे झगडालू होने पर गर्व है, संतोष है, क्योंकि ऐसा करके ही साधु अपने साधुपन को बचा पाता है। ऐसी परिस्थिति में मूकदर्शक रहना, साधुपन पर दोष लगाना है। महाव्रतों का खण्डन करने जैसा है। एक महाव्रत टूटता है तो पांचों महाव्रत टूटते हैं।

आजकल सर्व धर्म समभाव और सर्व धर्म ममभाव की बातें जोरशोर से चल रही है। यह विषय आजकल एक तरह का फैशन हो गया है, वाचाल लोगों के लिए वाणी-विलास का एक माध्यम बन गया है, जहां वे भोलीभाली, भावुक जनता को बरगला सकते हैं। लेकिन, इस युग में भी सोने को सोना और पीतल को पीतल ही कहा जाता है। किन्तु जब धर्म को धर्म और अधर्म को अधर्म कहते हैं तो झगडाखोरमाने जाते हैं। कैसी विचित्र और विडम्बनापूर्ण हालत है? पर साधु को इसकी कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिए। सत्य के लिए मरना पडे तो मंजूर है, किन्तु झूठ के आगे समर्पण तो किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं ही है।

भगवान का संघ, भगवान के सिद्धान्तों की रक्षा के लिए लडना पडे तो लडता है, शेष दुनिया की किसी चीज के लिए वह नहीं लडता। लडते समय भी सामने वाले के हित की चिन्ता तो उसके हृदय में रही हुई होती है। क्योंकि, यह तो धर्मयुद्ध है। ये सिद्धान्त तो जगत मात्र का कल्याण करने वाला है। इन सिद्धान्तों का हनन होता है तो उसे रोकने के लिए कषाय करने पडते हैं। दुनिया में कहावत है कि, ‘लाख मरे, परन्तु लाखों का पालनहार न मरे

झूठी बातों का विरोध किए बिना सच्चे साधु को चैन नहीं पडता। यदि चैन पडे तो उसका साधुपन नहीं रहता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें