राजा दशरथ के बाद श्री
रामचन्द्रजी को ही राजगद्दी का अधिकार था, फिर भी वह दूसरे के हाथ चली गई। ऐसी स्थिति में भी उनके
हृदय को जरा भी आघात नहीं लगा। उन्हें ऐसा विचार भी नहीं आया कि मां मुझ पर जुल्म
कर रही है। दशरथ महाराज धर्म संकट में थे। वे कैकेयी को वचन दे चुके थे, लेकिन उन्हें वचन का पालन भी करना था और हृदय से
रामचन्द्रजी को ही राजा बनाना चाहते थे, पर जब अवसर आया, तब उन्होंने त्वरित निर्णय
लेकर मोहित हुए बिना प्रत्युत्तर दे दिया। उस समय ऐसा भी नहीं कहा कि ‘राम को पूछकर मैं कहूंगा’, इतना ही नहीं कैकेयी की जो मांग थी, उसके उत्तर में मोहित हुए बिना कह दिया कि ‘तुम्हारी मांग के मुताबिक मैंने भरत को राज्य दे
दिया’। दशरथजी इतना निर्भय होकर कब
बोल सके होंगे? उन्हें विश्वास था कि उनका
पुत्र राम पौद्गलिक सुख के लिए धर्म का भोग नहीं लेगा और वह राज्य के लिए मेरा
विरोधी कभी नहीं बनेगा।
सोचिए कि जिस पिता के बच्चे
ऐसे हों, उस पिता का जीवन कैसा होगा? उस परिवार के संस्कार कैसे होंगे? इन सब का विचार करिए और इसके आईने में अपने और अपने
परिवार के संस्कार देखिए! आज तो एक पाव दूध के लिए भाई-भाई में झगडा होता है। तृण
जैसी चीजों के लिए दीर्घकालीन संबंधों को ताक पर रखकर लोग झगड पडते हैं। निन्यानवे
दिन ठीक रहा हो और एक दिन थोडा बिगड गया हो तो पहले के सारे संबंध टूट जाते हैं।
यह दशा कहां से उत्पन्न हुई?
संस्कार चले गए, सद्भावना, उदारता, सहिष्णुता, सब चला गया और केवल स्वार्थ की अभिवृद्धि हुई। इन सब
की जड, आप के जीवन में व्याप्त
धर्महीनता ही है।
आप के जैसी यदि दशरथ महाराजा
के परिवार की दशा होती तो क्या परिणाम होता? ध्यान रखिए कि ये लोग कोई त्यागी नहीं थे। संसारी थे, फिर
भी ऐसा व्यवहार करते थे और राजगद्दी पर बैठकर भी इस तरह जीते थे कि दुनिया की
नश्वर चीजें आज की तरह उन्हें मोहित नहीं कर पाती थीं। आज तो आप के पास वह बल नहीं, वह सत्ता नहीं, वह शक्ति और ऋद्धि-समृद्धि नहीं है, वैसी उत्तमता भी नहीं है, फिर भी आप के अभिमान की कोई सीमा नहीं है। घमंड करने लायक आप
के पास कुछ भी नहीं है और आप के घमंड का कोई पार नहीं है, ऐसी आपकी दशा है। उनकी ऐसी दशा नहीं थी, इसका क्या कारण? तो कहना होगा कि धर्म उनका साथी बना था। आज तो आपने धर्म को
मात्र एक सामान्य काम चलाऊ वस्तु हो, ऐसा बना दिया है। दुनियादारी के काम में आता
हो तो धर्म करते हो, नहीं तो छोड देते हो। दूसरों
की चीज को अपना समझकर ललचाते हो,
भ्रम में पडते हो। यही
आज मुख्यवृत्ति रही है। इसीलिए आप के हाथ से सद्गुरु निकल गए, धर्म आप के पास रहा ही नहीं, देव मन्दिर में रह गए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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