सोमवार, 30 अप्रैल 2012

शक्य पाप छोडो


जिसे धर्म से प्रेम नहीं है, वह दुःखी हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। दुःख से बचना हो और सुख पाना हो तो धर्म के अलावा और कोई दूसरा मार्ग नहीं है। इस जगत में सर्वश्रेष्ठ धर्म वीतराग परमात्मा द्वारा प्ररूपित साधु-धर्म ही है। इसमें पाप का सर्वथा त्याग होता है और आत्मा का सहज निर्मल स्वरूप प्रकट हो, ऐसा पुरुषार्थ एवं आचरण होता है। मनुष्य गति और साधु-धर्म के माध्यम से ही आत्मा पुनरपि जननम्, पुनरपि मरणम्के चक्र से मुक्त हो सकती है और उसका चौरासी लाख जीव-योनियों में भटकाव खत्म हो सकता है, अपार और असह्य कष्टों से उसे मुक्ति मिल सकती है।

वर्तमान में आप संसार का त्याग करने में असमर्थ हों तो यह कह सकते हैं कि यह धर्म तो बहुत सुन्दर है, परन्तु इसका पालन हमारे लिए अभी शक्य नहीं है, अतः कोई दूसरा उपाय बताओ।जिसके दिल में ऐसी भावना जगी हो, उसके लिए दूसरा उपाय है- दुनियावी पदार्थों को आत्मा से भिन्न मानकर उनके प्रति ममता-आसक्ति का त्याग करना। यह शरीर भी अपने से भिन्न है, अतः शरीर की ममता का भी त्याग करना चाहिए, क्योंकि दुनियावी पदार्थ और शरीर की ममता तथा उनके सुयोग से सुख की कल्पना ही पाप का मूल है। अतः संसार न छूटे तब भी, संसार में रहते हुए भी उसकी ममता घटाकर जितना संभव हो, उतने हिंसादि पापों का त्याग करना चाहिए। इसके साथ ही यथाशक्ति देव-गुरु-धर्म की सेवा करनी चाहिए।

किसी भी निरपराधी जीव को पीडा नहीं पहुंचानी चाहिए। बडे झूठ नहीं बोलने चाहिए। चोर के नाम से कर्म कलंकित हो, ऐसी चोरी नहीं करनी चाहिए।स्व-स्त्री में संतोषी बनना चाहिए और परिग्रह का परिमाण करना चाहिए। इतना हो सकता है न? यह भी इन्द्रियों पर संयम आए तभी हो सकता है। इस प्रकार शक्य पाप छोडने का प्रयास करते-करते शक्ति प्राप्त हो जाए और भावना बढ जाए तो साधु जीवन को स्वीकार करने का प्रयत्न करना चाहिए।

इस प्रकार परमात्मा की शरणागति को स्वीकार कर जो आत्माएं साधु-धर्म की आराधना करने में लीन बनती हैं, वे आत्माएं इस भव में समभाव के कारण विकट परिस्थिति में भी अनुपम शान्ति प्राप्त करती हैं। इस भव में पाप का त्याग और धर्म के आदर के फलस्वरूप परभव में भी उस आत्मा को उत्तम सामग्री प्राप्त होती है। इस प्रकार वर्तन करने वाले का क्रमशः आत्म-स्वरूप प्रकट होने से वो आत्मा अनंत सुख की भोक्ता बनती है। सभी आत्माएं इस प्रकार का आचरण कर, दुःख से मुक्त बनकर, शाश्वत सुख की भोक्ता बनें, यही शुभाभिलाषा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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