गुरुवार, 3 जनवरी 2013

चरित्र निर्माण के प्रबल पुरोधा (1)


आज के विश्व में जब चारों ओर भौतिकता की चकाचौंध है और हर कोई अधिकाधिक भौतिक संसाधन जुटाने, विनाशक विकास और अभक्ष्य खाने के लिए अंधी दौड लगा रहा हो, इसी के कारण व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र से लेकर विश्व स्तर तक तनाव व्याप्त हो, समाज नानाविध व्याधियों से ग्रस्त और त्रस्त हो; ऐसे समय में धारा के विपरीत चरित्र निर्माण, संस्कार और आर्य संस्कृति, श्रमण संस्कृति की सुचिता व संरक्षण की बात करना और न केवल सतही अथवा लोक दिखावे के लिए बात करना; बल्कि उस पर पहले स्वयं आचरण करना और फिर उसके लिए इतनी प्रामाणिकता व अधिकारिकता के साथ एक अभियान एक आन्दोलन की तरह जीवन पर्यन्त चलना, इस अभियान को मनोवैज्ञानिक और तर्क संगत तरीके से प्रस्तुत करना बहुत ही मुश्किल का काम है, जोखिम और साहस भरा काम है, जो कोई बिरला व्यक्ति ही कर सकता है।

दशवैकालिक सूत्र की चूलिका में प्रभु महावीर की वाणी है-

अणुसोय-पट्ठिए+बहुजणम्मि पडिसोयलद्धलक्खेणं ।

पडिसोयमेव अप्पा, दायव्वो होउकामेणं ।।

अणुसोयसुहो लोगो, पढिसोओ आसवो सुविहियाणं ।

अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो ।।

तम्हा आयारपरक्कमेण संवर-समाहि-बहुलेणं ।

चरिया गुणा य नियमा य, होंति साहूण दट्ठववा ।।

‘(नदी के जल-प्रवाह में गिर कर प्रवाह के वेग से समुद्र की ओर बहते हुए काष्ठ के समान) बहुत-से लोग अनुस्रोत (विषय प्रवाह के वेग से संसार-समुद्र) की ओर प्रस्थान कर रहे (बहे जा रहे) हैं, किन्तु जो मुक्त होना चाहता है, जिसे प्रतिस्रोत (विषय-भोगों के प्रवाह से विमुख-विपरीत हो कर संयम के प्रवाह) में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, उसे अपनी आत्मा को प्रतिस्रोत की ओर (सांसारिक विषय भोगों के स्रोत से प्रतिकूल) ले जाना चाहिए।

अनुस्रोत (विषय-विकारों के अनुकूल प्रवाह) संसार (जन्म-मरण की परम्परा) है और प्रतिस्रोत उसका उत्तार (जन्म-मरण के पार जाना) है। साधारण संसारी जन को अनुस्रोत चलने में सुख की अनुभूति होती है, किन्तु सुविहित साधुओं के लिए प्रतिस्रोत आस्रव (इन्द्रिय-विजय) होता है।

इसलिए (प्रतिस्रोत की ओर गमन करने के लिए) आचार (-पालन) पराक्रम करके तथा संवर में प्रचुर समाधियुक्त हो कर, साधुओं को अपनी चर्या, गुणों (मूल-उत्तर गुणों) तथा नियमों की ओर दृष्टिपात करना चाहिए।

जैन शासन शिरताज, धर्मयौद्धा, व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा का जीवन इसी प्रकार संसार की धारा, भीड और भेडचाल के विपरीत, सदैव प्रतिस्रोतगामी रहा है। कच्ची मानसिकता, चारित्रिक शीथिलता और झूठ बोलने वाले लोग, अभक्ष्य का सेवन करने वाले लोग उनके सामने थर-थर कांपते थे।

वैराग्यावस्था से लेकर जीवन के अंतिम क्षण 96 वर्ष की अवस्था तक वे सदासर्वदा चारित्रपालन, संयम में दृढता और चरित्र निर्माण, संस्कार और आर्य संस्कृति, श्रमण संस्कृति की सुचिता व संरक्षण के लिए सजग रहे, सक्रिय रहे। (क्रमश:)

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