बुधवार, 2 जनवरी 2013

क्या वे झगडालू आचार्य थे?(5)


शास्त्र ही जिनके चक्षु थे, शासन का अनन्य राग जिनके रोम-रोम में व्याप्त था, शास्त्रों की वफादारी ही जिनका जीवन-मंत्र था, चाहे जैसा प्रलोभन देने पर भी जो सिद्धान्त से तनिक भी आगे-पीछे होने के लिए तत्पर नहीं थे, जो विरोध के प्रचण्ड तूफानों में भी त्रिकालाबाधित सिद्धान्तों तथा सनातन सत्यों का ध्वज फहराता रखने वाले थे और वीर शासन के अडिग सैनानी थे; ऐसे 20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक, पोषक, जैन शासन शिरताज, धर्मयोद्धा, व्याख्यान वाचस्पति, दीक्षायुगप्रवर्तक, विशालतपागच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा फरमाते थे कि विरोध करने के लिए हम विरोध नहीं करते। विरोध करने में हमें कोई मजा नहीं आता। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि हम ऐसे काल में जन्में हैं जब बात-बात का विरोध करना पडता है।

हमें बहुत से लोग परामर्श देने आते हैं कि विरोध करने से क्या होने-जाने वाला है? परन्तु मेरा कहना है कि भले कुछ न हो, परन्तु हमारे तो निर्झरा ही होती है। विरोध करने के अवसर पर विरोध किया था, यह आत्म-संतोष प्राप्त कर शान्ति से मर सकेंगे। अधर्म का विरोध न किया जाए तो मरते समय समाधि नहीं मिल पाती। राज्य शासन अच्छा न हो, सत्ताधीश न्यायी न हो तो विरोध का इच्छित परिणाम न भी मिले, परन्तु इससे क्या? हमें तो अपना आत्म-धर्म निभाना ही है। इसी सच्चाई के चलते उनका समाधिपूर्वक स्वर्गवास हुआ।

उन्हें चापलूसी या किसी की खुशामद कतई पसंद नहीं थी। यह काम न तो वे कर सकते थे और न ही करने वाले को अच्छा मानते थे। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि चापलूसी तीन घोर घृणित दुर्गणों का मिश्रण है- असत्य, दासत्व और विश्वासघात। इसी प्रकार वे चाण्डाल प्रवृत्ति के लोगों से भी सजग रहते थे, क्योंकि उनका पूरा जीवन संघर्षों और विवादों से भरा रहा। शास्त्रों में पांच प्रकार के चाण्डाल कहे गए हैं-

ईर्ष्यालु, पिशुनश्चैव, कृतघ्नो, दीर्घरोषकः ।

चत्वारः कर्मचाण्डालः, जाति चाण्डालश्च पंचम ।।

ईर्ष्यालु, चुगलखोर, कृतघ्न (अहसानफरामोश) और क्रोध को गांठ में बांधने वाला कपटी या महाक्रोधी ये चार कर्म से चाण्डाल हैं, जबकि पांचवां जाति से चाण्डाल है। पहले चार चाण्डाल ही सबसे खतरनाक हैं।

संघ छोटा हो तो हर्ज नहीं, लेकिन वह भगवान की आज्ञा मानने वाला होना चाहिए। ऐसा उनका पक्का अभिमत था। असत्य उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं था। सत्य के लिए वे हमेशा अडिग रहते। उन्हें जिनाज्ञा की कसौटी पर, सत्य के लिए अकेले पडजाना मंजूर था, लेकिन झूठ के आगे घुटने टेकना उन्हें कतई मंजूर नहीं था, चाहे जमाना खिलाफ हो जाए। इसीलिए वे जिद्दी या झगडालू आचार्य कहेजाते थे, लेकिन अंर्तहृदय से तो विरोधी भी उनकी साधुता व सच्चाई के कायल थे।

वे झूठ के आगे, दुनिया के आगे कभी झुके नहीं। जीतेजी तो नहीं झुके सो नहीं ही झुके, स्वर्गवास के पश्चात उनकी देह के अंतिम संस्कार में शामिल प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि जब देह को अग्नि दे दी गई, तब भी धड से उनका सिर झुका नहीं, लटका नहीं, नीचे नहीं गिरा और उर्घ्व-दिशा में ही रहा। उनका समर्पण, उनका झुकाव तो जिन आज्ञा के प्रति था न!

वे कहते थे- मेरे पास न तो किसी के लिए नरक के परवाने फाडने का समय है और न ही अधिकार। मैं तो वही कहता हूं जो जिनेश्वरदेव ने फरमाया है।

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