जगत में जीव मात्र को दुःख के
प्रति द्वेष और सुख के प्रति अनुराग है। किन्तु, अज्ञानी जीव दुःख के कारणों को सुख के कारण मानकर, उनकी ही सेवा में मस्त रहते हैं तथा सुख प्राप्ति के
वास्तविक साधनों से बेखबर रहते हैं। श्री जैन शासन दुःख और सुख के जो वास्तविक
कारण हैं, उन सभी कारणों को समझाने के लिए दुःख के कारणों का
त्रिविध-त्रिविध त्याग करने का और सुख के कारणों को त्रिविध-त्रिविध सेवन की
प्रेरणा देता है। संसार से मुक्त होकर ही दुःख से मुक्त हुआ जा सकता है, इसलिए श्री जैन शासन का ध्येय जीवों को संसार-मुक्त बनाने
का ही है। अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म की
यथाविधि आराधना द्वारा जो आत्माएं स्वयं की आत्मा के साथ संलग्न बने हुए कर्मों को
दूर कर देती हैं, वे आत्माएं संसार-मुक्त हो
सकती हैं। कर्म के सम्पर्क से आत्मा का स्वभाव आच्छादित है। इस सम्पर्क का सर्वथा
अभाव हो जाए, तो आत्मा संसार-मुक्त बन जाता है। कल्याणार्थी
आत्माएं ऐसे संसार मुक्त बन सकें, इसीलिए ही संसार के भोगादि का
त्याग कर और संयम की आराधना में उद्यमवंत बनने का उपदेश श्री जैन शासन में है।
आइए! हम इसका अनुसरण करें! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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