मंगलवार, 1 जनवरी 2013

क्या वे झगडालू आचार्य थे?(4)


क्या वे झगडालू आचार्य थे?(4)

शास्त्र ही जिनके चक्षु थे, शासन का अनन्य राग जिनके रोम-रोम में व्याप्त था, शास्त्रों की वफादारी ही जिनका जीवन-मंत्र था, चाहे जैसा प्रलोभन देने पर भी जो सिद्धान्त से तनिक भी आगे-पीछे होने के लिए तत्पर नहीं थे, जो विरोध के प्रचण्ड तूफानों में भी त्रिकालाबाधित सिद्धान्तों तथा सनातन सत्यों का ध्वज फहराता रखने वाले थे और वीर शासन के अडिग सैनानी थे; ऐसे 20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक, पोषक, जैन शासन शिरताज, धर्मयोद्धा, व्याख्यान वाचस्पति, दीक्षायुगप्रवर्तक, विशालतपागच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा "वे झगडालू क्यों हैं?" इस प्रश्न के उत्तर में स्वयं फरमाते हैं-

यदि सत्य-धर्म का पक्ष रखना, असत्य-अधर्म का विरोध करना झगडा करना है तो हां, मैं झगडालू हूं। यदि न्याय-नीति की बात करना, धर्म की रक्षा के लिए अडजाना झगडा करना है तो मैं झगडालू हूं। कहने वाले प्रभु महावीर को भी तो झगडालू कहते थे। श्री जिन आज्ञा का पालन करना और जिन आज्ञा विरोधी गतिविधियों पर अंकुश के लिए संघर्ष करना झगडा करना है तो मैं झगडालू हूं और मुझे ऐसे झगडालू होने पर गर्व है, संतोष है, क्योंकि ऐसा करके ही मैं अपने साधुपन को बचा पाता हूं। यदि मैं मूकदर्शक रहूंगा तो मेरे साधुपन पर दोष निश्चित है।

आजकल सर्व धर्म समभाव और सर्व धर्म ममभाव की बातें जोरशोर से चल रही है। यह विषय आजकल एक तरह का फैशन हो गया है, वाचाल लोगों के लिए वाणी-विलास का एक माध्यम बन गया है, जहां वे भोलीभाली, भावुक जनता को बरगला सकते हैं। लेकिन, इस युग में भी सोने को सोना और पीतल को पीतल ही कहा जाता है। किन्तु जब हम धर्म को धर्म और अधर्म को अधर्म कहते हैं तो झगडाखोरमाने जाते हैं। कैसी विचित्र और विडम्बनापूर्ण हालत है? पर हमें इसकी कोई चिन्ता नहीं। सत्य के लिए मरना पडे तो मंजूर है, किन्तु झूठ के आगे समर्पण तो किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं ही है।

भगवान का संघ, भगवान के सिद्धान्तों की रक्षा के लिए लडना पडे तो लडता है, शेष दुनिया की किसी चीज के लिए वह नहीं लडता। लडते समय भी सामने वाले के हित की चिन्ता तो उसके हृदय में रही हुई होती है। क्योंकि, यह तो धर्मयुद्ध है। ये सिद्धान्त तो जगत मात्र का कल्याण करने वाला है। इन सिद्धान्तों का हनन होता है तो उसे रोकने के लिए कषाय करने पडते हैं। दुनिया में कहावत है कि, ‘लाख मरे, परन्तु लाखों का पालनहार न मरे

सिद्धान्तों की रक्षा करनी ही पडती है। समता और समानता की बातें करने वालों को भी चोर-बदमाशों को जेल में डालना ही पडता है। सब मनुष्य समान हों तो किसी को जेल में डाला जा सकता है क्या? परन्तु सज्जनों को हैरान करने वाले चोर-बदमाशों को जेल में डालना जरूरी हो जाता है। धर्म क्षेत्र में भी ऐसा ही है। जगत का हित करने वाले सिद्धान्त जीवित रहने चाहिए। जगत के सब जीवों का भला चाहना अच्छा है, परन्तु सर्वकल्याणकारी शासन के सामने यदि कोई सिर उठाता है, तो उसके विरूद्ध कठोर कदम उठाने ही पडते हैं। इसी के चलते उन्हें अपने जीवनकाल में कई बार अदालत (कचहरी) में जाकर स्वयं सत्य की पैरवी करनी पडी। वे अदालत में जाने से कभी घबराए नहीं, बेधडक गए और अपनी बात कही, सत्य की पैरवी की।

झूठी बातों का विरोध किए बिना हमें चैन नहीं पडता। यदि चैन पडे तो हमारा साधुपन नहीं रहता। आप लोगों के पास तो बचाने जैसा दूसरा बहुत कुछ है। अतः आपका दिमाग ठंडा रहता है। हमारे लिए तो बचाने जैसा एक मात्र धर्म शासन ही है। यदि इसे भी न बचावें तो हमारे पास क्या रह जाता है?(क्रमश:)

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