अनन्त उपकारी श्री अरिहंत परमात्माओं ने आठ वर्ष की
आयु को दीक्षा के लिए योग्य बताई है। लघु वय में ही दीक्षित होकर शासन की अनुपम
प्रभावना करने वाले अनेक महापुरुषों की जीवन सौरभ इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर
आज भी महक रही है। इतना सब जानते हुए भी तथाकथित इतिहासज्ञों ने जमाने के विषाक्त
प्रभाव से शास्त्र-सिद्ध बालदीक्षा के विरोध का तूफान खडा करने का प्रयास किया। उस
समय 20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक रहे, श्रमण संस्कृति के उद्धारक-पोषक धर्मयोद्धा, जैन शासन सिरताज व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा ने मुस्कराते हुए अनेक विपत्तियों-आपत्तियों को
सहन किया और उनका माकूल जवाब देकर बालदीक्षा विरोध के घनघोर बादलों को छिन्न-भिन्न
करके दीक्षा और बालदीक्षा का मार्ग सुलभ बनाया। यह दीक्षायुगप्रवर्तक पूज्य श्री
का समग्र जैन समाज पर महान् उपकार था। आज दीक्षा देने-लेने वाली कई पुण्यात्माओं
को तो शायद इस बात का इल्म भी नहीं होगा।
स्वयं उनको त्रिभुवन पाल (आचार्य श्रीमद् विजय
रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा) को दीक्षा लेने से रोकने के लिए अनेकों प्रयास हुए, लेकिन वे सब नाकारा साबित हुए। अंत में पादरा के
जानेमाने वकील मोहनलाल ने एक अंतिम किन्तु प्रभावशाली प्रयास किया। पादरा कोर्ट के
पारसी मजिस्ट्रेट नानाभाई पेस्तनजी नवसारीवाला के साथ मोहनलाल वकील के निजी संबंध
थे और वे उनके पडौस में भी रहते थे। इस मजिस्ट्रेट ने पंन्यास श्री दानविजयजी
महाराज को संदेश कहलवाया कि यदि आप त्रिभुवन को दीक्षा देंगे तो आपके खिलाफ भी
फौजदारी कार्रवाही की जाएगी। पंन्यास श्री दानविजयजी महाराज ऐसी धमकी से डरनेवाले
नहीं थे। वे अपनी पूर्वावस्था में पुलिस पटेल रह चुके थे, इसलिए कानून के जानकार थे। पंन्यास श्री दानविजयजी
महाराज के सामने उनकी या मजिस्ट्रेट की दाल नहीं गलेगी, इसका
अहसास मोहनलाल वकील को हो गया। इसलिए एक दिन उन्होंने त्रिभुवन को किसी काम के
बहाने अपने घर बुलाया और उसे मजिस्ट्रेट के सामने खडा कर दिया।
मोहनलाल वकील के उकसावे में पारसी मजिस्ट्रेट भी
बराबर तैयारी करके ही बैठे थे। उसने अनेक तर्कों द्वारा त्रिभुवन को दीक्षा न लेने
के लिए समझाने की कोशिश की। मजिस्ट्रेट ने कहा, ‘धर्म
करने के लिए गृह त्याग करने और साधु बनने की क्या जरूरत है? घर पर रहकर धर्म का पालन नहीं किया जा सकता?’ त्रिभुवन ने कहा, ‘आप
घर पर रहकर कितना धर्म का पालन करते हैं?’ मजिस्ट्रेट
ने कहा, ‘इतनी कम उम्र में दीक्षा लेने की क्या जरूरत है? बडे होकर दीक्षा नहीं ली जा सकती?’ त्रिभुवन ने कहा, ‘आप
तो उम्र में बडे हैं तो भी दीक्षा क्यों नहीं लेते? और
फिर उम्र (जीवन) की क्या गारंटी है?
क्या एक क्षण का भी
भरोसा है?’ मजिस्ट्रेट ने अंतिम शस्त्र फेंका, ‘तुम्हे जो साधु दीक्षा देगा, उसे मैं दण्डित करूंगा।’ त्रिभुवन
ने कहा, ‘मैं स्वयं ही दीक्षा ले लूंगा तो आप किसे दण्डित
करेंगे?’ अंत में मजिस्ट्रेट ने उनके साहस, आत्मबल और दृढता को देख कर ठण्डे पडते हुए कहा, ‘दुनिया की कोई ताकत इस किशोर को दीक्षा लेने से नहीं
रोक सकती।’
अपने 96
वर्ष के जीवनकाल में
सैंकडों साधु-साध्वियों को दीक्षा प्रदान करने वाले और 121 उत्तम शिष्यों का गुरुपद शोभित करने वाले
विश्वविख्यात जैनाचार्य स्व. गच्छाधिपति श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा की
दीक्षा इतनी गुप्तता,
चिंता और निर्जनता के
बीच हुई, यह हकीकत ही रौंगटे खडे कर देनेवाली है। पूरी दुनिया
में दीक्षा का डंका बजाने वाले इस गच्छाधिपति श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा की दीक्षा के लिए न कोई निमंत्रण पत्रिका छपवाई गई, न वरसीदान दिया गया। दीक्षा महोत्सव में पधारने के
लिए अखबार में विज्ञापन तो नहीं दिया गया, बल्कि
इसके विपरीत दीक्षा देने के विरूद्ध नोटिस जरूर छपवाया गया था। दीक्षा में न
वरघोडा निकला और न मंडप बनाया गया। दीक्षार्थी के सम्मान में न किसी समारोह का
आयोजन हुआ और न ही वायणा कराने का विचार आया। इसके बावजूद यह दीक्षा विक्रम की
बीसवीं सदी के इतिहास की सबसे यादगार दीक्षा बन गई थी। (क्रमश:)
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