शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

चरित्र निर्माण के प्रबल पुरोधा (2)


शास्त्र ही जिनके चक्षु थे, शासन का अनन्य राग जिनके रोम-रोम में व्याप्त था, शास्त्रों की वफादारी ही जिनका जीवन-मंत्र था, चाहे जैसा प्रलोभन देने पर भी जो सिद्धान्त से तनिक भी आगे-पीछे होने के लिए तत्पर नहीं थे, जो विरोध के प्रचण्ड तूफानों में भी त्रिकालाबाधित सिद्धान्तों तथा सनातन सत्यों का ध्वज फहराता रखने वाले थे और वीर शासन के अडिग सैनानी थे; ऐसे 20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक, पोषक, जैन शासन शिरताज, धर्मयोद्धा, व्याख्यान वाचस्पति, दीक्षायुगप्रवर्तक, विशालतपागच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा  इसलिए महान थे कि बडे से बडे तूफान के बीच भी वे अपनी सच्ची बात से थोडा भी पीछे नहीं हटते थे और साथ ही यह कहते कि मेरी कोई भी बात भगवान महावीर के उपदेश के विपरीत हो तो मुझे बताएं, मैं सार्वजनिक रूप से माफी मांगने के लिए तैयार हूं। बालदीक्षा के प्रश्न पर तथाकथित सुधारक जैनों के आचार्यश्री के सामने आ जाने पर वातावरण काफी उग्र था। विरोधियों में जितना जुनून था, उससे दो गुनी खुमारी आचार्यश्री के संसारी भक्तों में थी। आचार्यश्री के विरोधी उन्हें मार्ग से हटाने के लिए तरह-तरह के पत्र भेजते। कुछ में खून करने की धमकी भी दी जाती थी। ऐसी स्थिति में बडे से बडा दृढ साधु भी ठंडा पड जाता। खुद आचार्यश्री के भक्त और शुभेच्छु भी उन्हें दीक्षा का आग्रह छोडने के लिए समझाते, तब वे कहते कि इनके सामने एक बार झुक जाने पर इनकी गलत बात प्रस्थापित हो जाएगी। आचार्यश्री के विरोधी उन्हें किसी भी समय समाप्त कर सकते हैं, ऐसा भय उत्पन्न होने पर उनके दादागुरु विजयदानसूरि जी काफी सजग रहते। उन्हें भीक्षा में कोई जहरीला पदार्थ न खिला दे, इसके लिए उनके वफादार शिष्य मुनिश्री चारित्रविजय जी हमेशा उनके साथ रहते थे। अपने गुरु को कोई भी आहार देने से पूर्व वे स्वयं चखते और आधा घंटा उसका प्रभाव देखने के बाद अपने गुरु को आहार देते थे।

मुम्बई में तथाकथित सुधारवादियों के बवाल, उग्र विरोध और हमला करने की संभावनाओं के मद्देनजर डर के मारे समाज के कुछ अग्रणीय कहे जाने वाले लोगों ने आचार्य भगवन् को सुरक्षा की दृष्टि से प्रवचन बंद रखने की सलाह दी तो पूज्य श्री ने निर्भीकता से कहा, ‘हमारी सुरक्षा की आप तनिक भी चिन्ता न करें। हमारी रक्षा करने वाला श्री जिनशासन जयवंत है। कोई हमारी रक्षा करेगा, इस विश्वास पर हमने यह संयम अंगीकार नहीं किया है।

ऐसे उग्र विरोध के वातावरण में आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी का मुम्बई में प्रवेश होने पर रास्ते में जगह-जगह काले झण्डे लगाए गए थे, मार्ग में कांच बिखेरा गया था और मकानों से उन पर पत्थरों की वर्षा की गई, फिर भी उनके हृदय में विरोधियों के प्रति मैल पैदा नहीं हुआ और विरोध से डरकर उन्होंने कभी अपने कदम पीछे नहीं हटाए।

महाराजश्री की महानता अनेक प्रश्न पर उनके द्वारा की गई लडाई में नहीं थी, बल्कि लडाई के अन्त में विरोधियों के प्रति उनके मन में करुणा और मैत्रीभाव में थी। सिद्धान्त के लिए लडना, परन्तु व्यक्ति के लिए जरा भी द्वेष नहीं। इससे उनके विरोधी भी उनका आदर करते थे। तिथि के प्रश्न पर आचार्यश्री सागरानंदसूरिजी के साथ संघर्ष होने के बावजूद सूरत में उनके बीमार होने पर महाराजश्री स्वयं उनका हालचाल पूछने और क्षमापना करने के लिए उनके पास गए थे। यह कार्य हृदय की विशालता के बिना संभव नहीं है।

आचार्य श्री की दृढता यही बताती है कि वे अपना लक्ष्य कभी नहीं भूले। क्यों उन्होंने संयम लिया, क्या उनका धर्म, कर्म और लक्ष्य है? और उन्होंने कभी इस बात की भी परवाह नहीं की कि कौन उनका साथ देगा, कौन नहीं। वे तो बस जिनाज्ञा के साथ सन्मार्ग पर बढते चले गए, कारवां स्वतः ही बनता गया। उन्हें इसी में आत्म-संतोष था कि-

मंजिल मुझे मिले न मिले, इसका गम नहीं ।

मंजिल की जुस्तजू में मेरा कारवां तो है ।।

और सफलताएं उनके चरण चूमती। वे तत्कालीन जैन समाज में सबसे बडे तपागच्छ संघ के सबसे बडे आचार्य बन गए। यह निस्पृह भाव से जिन शासन की सेवा करने का उनका जज्बा ही था कि दीक्षा के मार्ग को सरल बनाने में और लोगों में स्वीकार करने जैसा बनाने में सबसे बडा योगदान उनका ही रहा है। एक बार उन्होंने खंभात में एक साथ 24 और अमलनेर में एक साथ 26 मुमुक्षुओं को साधु जीवन में पदार्पण करवाया। 20 वीं सदी के जैन शासन की यह सबसे महत्त्वपूर्ण घटनाएं थीं। उनके पास दीक्षा लेने वालों में बडे-बडे मिल मालिकों से लेकर तत्कालीन समाज में शालीभद्र माने जाने वाले करोडपति भी शामिल थे।

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