आजकल धर्म के नाम पर अधर्म की
बहुत-सी बातें चल रही हैं। अहिंसा,
अपरिग्रह और अनेकान्त
के नाम से यथेच्छ भाषण करने वालों को अपनी मर्यादा का भान नहीं है। अहिंसा और
अपरिग्रह के सिद्धान्तों में जिसे श्रद्धा हो और उसमें यदि सामर्थ्य हो तो उसे
साधु बन जाना चाहिए। यदि इतनी शक्ति न हो तो सम्यक्त्व मूलक व्रत लेना चाहिए। यदि
यह भी न बन पडे तो ‘सारा संसार छोडने योग्य है और
यदि शक्ति प्रकट हो तो छोड दूं’, ऐसी भावना को विकसित करके सम्यक्त्व को तो स्वीकार करना ही
चाहिए। अनेकान्त की बात करने वाले को मालूम नहीं कि अनेकान्त को अपनाने वाले को तो
मुंह पर ताला लगाना होगा, वचन तोल-तोल कर बोलने होंगे।
आज अनेकान्त के नाम पर मनमाना लिखने और बोलने वालों ने तो लगभग अनेकान्त का खण्डन
ही किया है। अनेकान्तवादी झूठे और सच्चे दोनों को सच्चा नहीं कहता। उसे तो झूठे को
झूठा और सच्चे को सच्चा कहना ही पडेगा। अहिंसा,
अपरिग्रह और अनेकान्त
को जीवन में उतारने वाली जैन शासन की साधु संस्था को आप देखेंगे तो आपको लगेगा कि
दुनिया की सब संस्थाओं की तुलना में यह साधु संस्था अब तक बहुत अच्छी है। भगवान की
अहिंसा तो मोक्ष प्राप्ति के लिए ही है। किसी का कुछ छीन लेने के लिए, किसी के साथ कपट करने के लिए अथवा भौतिक स्वार्थ साधने के
लिए अहिंसा शब्द का उपयोग करना महापाप है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें