गुजरात में भरुच के निकट एक समय जहाजों के आवागमन से
भरा रहने वाला गांधार बंदरगाह जैन संस्कृति का बडा केन्द्र था, लेकिन औरंगजेब के आतंक और आक्रमणों से बिलकुल सुनसान
हो गया था। पहले मोहम्मद गजनी आया,
फिर गौरी और फिर बाबर, सब जगह मन्दिरों को इन्होंने लूटा, लेकिन गांधार तीर्थ और जैन साधु-साध्वी सुरक्षित रहे।
हूमायू, अकबर,
जहांगीर और शाहजहां
खुर्रम के समय लूटपाट बंद रही। यहां तक कि सन् 1556 से 1605 के बीच जब अकबर का शासन था, उसने जैन संतों को बहुत सम्मान दिया और उनके प्रभाव
से स्वयं ने मांसाहार का त्याग कर दिया।
मुगल सम्राट अकबर बादशाह को उपदेश देकर मांसाहार
छुडानेवाले जगद्गुरु जैनाचार्य श्री विजयहीरसूरीश्वर जी महाराज ने 300 साधुओं और 700 साध्वियों के समुदाय के साथ गांधार में तीन-तीन
चातुर्मास किए थे। इस नगर में लगभग 17
जैन देरासर थे और
हजारों श्रावक-श्राविकाओं की बस्ती थी। जगद्गुरु जैनाचार्य श्री विजयहीरसूरीश्वर
जी महाराज को अकबर बादशाह ने जिस समय दिल्ली पधारने के लिए आग्रह भरा निमंत्रण
भेजा, उस समय आचार्य महाराज गांधार में बिराजमान थे। उस समय
अहमदाबाद और खंभात का संघ उनका मार्गदर्शन लेने के लिए गांधार बंदरगाह आया था।
‘गांधार’
बंदरगाह की शान व शौकत
दरिया की उत्ताल तरंगों के कारण कुछ नष्ट हुई थी, लेकिन
धर्म जुनूनी औरंगजेब ने शेष बचे हुए गांधार बंदरगाह को पूरी तरह नष्ट कर दिया था।
सन् 1669 में औरंगजेब ने मन्दिरों को लूटने, तोडने और बलात् धर्म परिवर्तन कराने का फरमान जारी
किया और कई जैन मन्दिरों को लूट लिया,
नष्ट कर दिया, जैन साधु-साध्वियों पर अत्याचार किए। इस दौरान कई
साधु-साध्वियों ने अपने संयम धर्म को बचाने के लिए आत्मोत्सर्ग कर दिया, संथारा ग्रहण कर अपनी देह त्याग दी। जैनों ने इस नगर
को छोड दिया, परन्तु एक प्राचीन देरासर खण्डहर की हालत में रह गया
था। औरंगजेब के जुनूनी सैनिक गांधार बंदरगाह पर फिर से टूट पडें, उससे पहले ही चतुर श्रावकों को इसका समाचार मिल गया
था। श्रावकों ने सावधानी रखकर छः फुट ऊंचे प्राचीन और चमत्कारिक श्री अमीजरा
पार्श्वनाथ भगवान को बचाने के लिए उनको तहखाने में छिपा दिया था और तहखाने पर
मस्जिद आकार का देरासर बना दिया। लगभग 200 वर्ष बाद अंग्रेजों के राज्य में श्री अमीजरा
पार्श्वनाथ भगवान को तहखाने से बाहर निकाल कर एक छोटा मन्दिर बनाकर उसमें बिराजमान
कराया गया। यह मन्दिर भी जीर्ण हो गया और उसके रंगमंडप की एक दीवार टूट गई। गांधार
में जैनों का एक भी घर नहीं रहा,
इसलिए मन्दिर की देखभाल
ब्राह्मण पुजारी को सौंपी गई। ऐसे खण्डहर बने गांधार तीर्थ में 17 वर्षीय श्री त्रिभुवन पाल का गुपचुप रीति से
दीक्षा-संस्कार हुआ और औरंगजेब के जुनूनी सैनिकों द्वारा अपवित्र किया गया यह
तीर्थ फिर से पावन हो गया।
यहां दीक्षा ग्रहण कर त्रिभुवन पाल से मुनि राम विजय
बने महामना ने फिर से एक नया इतिहास रचडाला। जैसा कि उल्लेख किया गया है और इतिहास
इस बात का साक्षी है कि अकेले जगद्गुरु जैनाचार्य श्री विजयहीरसूरीश्वर जी महाराज
ने 300 साधुओं और 700 साध्वियों के समुदाय के साथ यहां तीन-तीन चातुर्मास
किए थे। मतलब कि उस समय तक दीक्षा और बालदीक्षा या यों कहें कि संयम मार्ग में
जाने के खिलाफ कोई उग्र वातावरण नहीं था और जैन शासन में हजारों की संख्या में
साधु-साध्वी बिराजमान थे। अकेले तपागच्छ संघ में ही 18 हजार
से ज्यादा साधु-साध्वीजी थे। औरंगजेब के समय से इस संख्या में तेजी से कमी होना
शुरू हुई।
लगभग 200
वर्षों का कालखण्ड ऐसा
रहा, जिसमें नई दीक्षाएं अत्यंत न्यून हुई और लोगों के सोच, संस्कारों व चरित्र में भारी बदलाव हुआ। हजारों की
संख्या में रहे साधु-साध्वी की संख्या सैंकडों में हो गई और यह भी घटती-घटती संवत्
1969 तक तो 150
रह गई। इनमें भी
अधिकांश साधु-साध्वीजी महाराज बुजुर्ग थे। प्रभु महावीर के शासन में संभवतया इतनी
कम साधु संख्या इससे पूर्व कभी नहीं रही। ऐसे कालखण्ड में समाज में जडता आ जाना
स्वाभाविक ही है,
क्योंकि संस्कारों को
नहीं संभालो तो जाते देर न लगे और बुराई को खूब लातें मारो तब भी वह चली जाए, यह जरूरी नहीं।
ऐसे कालखण्ड में 20वीं
सदी में जैन धर्म संघ के महानायक,
श्रमण संस्कृति के
उद्धारक-पोषक धर्मयोद्धा,
जैन शासन सिरताज
व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा का जन्म
होना, भयंकर विरोध के वातावरण में गुपचुप तरीके से गांधार
तीर्थ में विक्रम संवत् 1969
पोष सुद 13 के शुभ दिन पूज्य मुनिश्री मंगलविजयजी महाराज के शुभ
हाथों से उनका दीक्षा-संस्कार होना चमत्कारों से भरा हुआ अकल्पनीय सफर है।
त्रिभवुनपाल से मुनिश्री रामविजयजी बने उस महामना ने दीक्षा-विरोधी वातावरण के
कारण बंद से हो गए दीक्षा मार्ग को भारी संघर्ष और हमलों का मुकाबला कर फिर से
खोला, पूरे संयमी जीवन में लगातार प्रकारांतर से समाज को
दीक्षा के लिए प्रेरित कर समाज में संयम के प्रति सम्मान प्रतिष्ठापित किया; यह सब जिन शासन के प्रति उनके समर्पण और वफादारी का
ही परिणाम है।
यह एक महान् संयोग ही है कि इस तीर्थ का पुनरोद्धार
भी इन्हीं महापुरुष के उपदेश से सम्पन्न हुआ। श्री महावीर स्वामी जी का नया मन्दिर
भी बना और प्राचीन श्री अमीझरा पार्श्वनाथ प्रभु आदि सभी मन्दिरों की प्रतिष्ठा भी
उन्ही के वरदहस्तों से हुईं। गांधार तीर्थ में दीक्षित मुनिश्री रामविजयजी से
शासनसिरताज सूरिरामचन्द्र तक का सफर करने वाले महामना की दीक्षा शताब्दी आज फिर से
गांधार तीर्थ की धन्यता को मानस पटल पर अंकित कर रही है।
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