गुरुवार, 10 जनवरी 2013

युवाओं के लिए महत्त्वपूर्ण सूरि-राम के ये पांच गुण


शास्त्र ही जिनके चक्षु थे, शासन का अनन्य राग जिनके रोम-रोम में व्याप्त था, शास्त्रों की वफादारी ही जिनका जीवन-मंत्र था, चाहे जैसा प्रलोभन देने पर भी जो सिद्धान्त से तनिक भी आगे-पीछे होने के लिए तत्पर नहीं थे, जो विरोध के प्रचण्ड तूफानों में भी त्रिकालाबाधित सिद्धान्तों तथा सनातन सत्यों का ध्वज फहराता रखने वाले थे और वीर शासन के अडिग सैनानी थे; ऐसे 20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक, पोषक, जैन शासन शिरताज, धर्मयोद्धा, व्याख्यान वाचस्पति, दीक्षायुगप्रवर्तक, विशालतपागच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा में अनेक गुण थे। इनमें से पांच महत्त्वपूर्ण गुणों की ओर यहां ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है, जिन्हें वर्तमान समाज एवं खासकर युवा पीढी को पूरी गंभीरता एवं विनम्रता से समझना चाहिए और जीवन में अपनाना चाहिए। इन विशिष्ट गुणों का आज समाज में लोप-सा हो गया है। ये गुण हैं: प्रशान्त दर्शन, धीरता, शासन रक्षा हेतु शौर्य, मोहोपशमन हेतु नीर तुल्य और स्पष्टवादिता।

प्रशान्त दर्शन : आकृति से व्यक्ति के गुण जाने जा सकते हैं। हृदय में जो जो भाव प्रकट होते हैं, उनकी झलक चेहरे पर तथा नैत्रों में दृष्टिगोचर होती है। यदि व्यक्ति में शक्ति हो तो वह किसी का चेहरा और नैत्र देखकर उसके अन्तर को जान सकता है। परम तारणहार गुरुदेव की दृष्टि तथा मुखाकृति में प्रशान्त भाव के ही दर्शन होते हैं, जिससे उनके हृदय की प्रशान्तता की प्रतीति होती है। उनके जीवन में अनेक तूफान आए, पर उनका हृदय सदा प्रशान्त रहा, जिससे कोई भी प्रसंग उनके हृदय को क्षुब्ध नहीं कर सका। विषयों और कषायों पर विजय हुए बिना प्रशान्तता प्रकट नहीं होती और प्रशान्तता लाने के लिए मान-अपमान की भेद रेखाओं का भी छेदन करना पडता है। सुख हो या दुःख, निंदा हो या प्रशंसा, हर हाल में प्रशान्त भाव, यह कोई सामान्य सिद्धि नहीं थी। यह आन्तरिक सिद्धि उन महान पुरुष का अनुपम आन्तर वैभव था।

धीरता : जिस व्यक्ति में विषय-कषायों को सचमुच शमन करने का भाव हो, वही वास्तव में धीर बन सकता है, क्योंकि विषयों से विवश और कषायों से कलुषित आत्मा चंचल होती है। उसमें धीरता कदापि नहीं आती। परम तारणहार गुरुदेव ने विषय-कषायों पर विजयी होकर प्रशान्तता आत्मसात् की थी, जिससे वे धैर्य गुण धारक बन सके। पूज्य श्री तो केवल परमात्मा को ही रिझाना चाहते थे। वे इस बात पर अटल रहे। दर्शनमोहनीय कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम के बिना यह गुण प्रकट होना असंभव है। जिनाज्ञासापेक्ष विचारधारा को अखण्ड रूप से प्रवाहित रखने के लिए, पूज्य श्री ने सब कुछ सहन किया और भोग देना पडा तो वह भी दिया। किसी भी प्रकार के संयोग उन्हें जिनाज्ञा से विचलित नहीं कर सके।

शासन रक्षा हेतु शौर्य : सत्व गुण में से प्रकट वीरता (शौर्य) स्व-पर दोनों का हित कर सकती है और यह सत्व गुण प्रशान्तता एवं धीरता के बिना प्रकट नहीं हो सकता। इस शौर्य के कारण ही पूज्य श्री ऐसी शासनरक्षा और प्रभावना कर सके कि वर्तमान विषम काल में भी सच्चे आराधक वीतराग भगवान द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्ग की आराधना कर सकते हैं। इस शौर्य के प्रताप से जीवन-मृत्यु के मध्य की भेद रेखा मिटाकर मान-अपमान से परे रहकर पूज्य श्री जैन शासन पर आने वाली विपत्तियों के समक्ष ढाल बनकर खडे रहे और शासन पर होने वाले प्रहारों को सहकर जिनशासन का ध्वज सर्वथा सुरक्षित रखा। एक बार अहमदाबाद में गांधीजी ने पूज्य श्री को कहलवाया कि शराबबंदी के कार्य में आप हमें सहयोग करें। तब इन वीर पुरुष ने उत्तर दिया कि केवल शराबबंदी के लिए ही क्यों, मांसाहार के त्याग के लिए क्यों नहीं? यदि इन दोनों व्यसनों को देशनिकाला देना हो तो मैं आपके साथ हूं। अन्यथा हमारा प्रयत्न तो सात कुव्यसनों का विपाक समझाकर, उन्हें दूर करने का चल ही रहा है।कितना निर्भीक और फौलादी मन था उनका!

उन्होंने जन्म से लेकर तरुणावस्था तक और अपने दीक्षा-प्रसंग से लेकर अन्य भव्यात्माओं को दीक्षा देने, उन्हें संयम में दृढ करने, आर्य संस्कृति, श्रमण संस्कृति की रक्षा के लिए अलख जगाने से लेकर संयम की उत्कृष्टता बनाए रखने के लिए अंतिम श्वांस तक कई झंझावातों का सामना किया, किन्तु कभी उफ तक नहीं की।

मोहोपशमन हेतु नीर तुल्य : मोह में विषय एवं कषाय सब आ जाते हैं। जब सम्पूर्ण विश्व अज्ञान से अंध है, विषयों से विवश है और कषायों से कलुषित है; तब विश्व को शान्ति प्रदान करने वाले, हाथ पकडकर सुमार्ग पर लेजाने वाले और सत्य मार्ग बताने वाले व्यक्ति की अत्यंत आवश्यकता थी। हमारे अहोभाग्य से हमें परमपावन पुरुष की प्राप्ति हुई थी। जिस किसी ने उनकी शरण ग्रहण की उसके मोह का शमन करने के लिए पूज्य श्री ने सदा शीतल जल का कार्य किया। जिन व्यक्तियों ने भावपूर्वक उनकी शीतल छाया का आश्रय लिया, उनका अंधकार नष्ट हुआ, वे कषायों के कटु विपाक से बच गए, विषयों के भूत उनसे दूर रहे और सच्ची शान्ति पाकर वे आत्मा रत्नत्रयी के सच्चे आराधक बने।

स्पष्टवादिता : अपने परम भक्तों को भी वे समय-समय पर स्पष्ट कह देते कि आप हमारी भक्ति करो अथवा हमारे आगे-पीछे फिरो, परन्तु यदि आपको भगवान की आज्ञा के प्रति सम्मान नहीं हो अथवा दीक्षा अंगीकार करने की आपकी इच्छा न हो तो केवल हमारी भक्ति से आपको तनिक भी लाभ नहीं होगा।

उस जमाने में हजारों रुपये व्यय करके स्वागतार्थ सामैया (प्रवेशोत्सव) करने वालों को भी वे स्पष्ट कह देते कि यदि ये सामैये आप हम साधुओं को प्रसन्न करने के लिए अथवा अपनी वाह-वाह करवाने के लिए करते हो तो आपके धन का अपव्यय होगा और प्राप्त करने के योग्य लाभ से आप वंचित रहेंगे। आपकी भावना होनी चाहिए कि जैनशासन के धर्म गुरुओं का पदार्पण हुआ है, अतः उनसे आकर्षित होकर यदि अनेक मनुष्य उनके सम्पर्क में आकर धर्मोपदेश सुनें और धर्म प्राप्त करलें तो हमारा यह व्यय सार्थक होगा।उनकी व्याख्यान सभा में चाहे साधारण मनुष्य बैठे हों, धनवान बैठे हों कि अधिकारीगण बैठे हों, सबको वे उनके हित की बातें अवश्य कहते।

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