बुधवार, 9 जनवरी 2013

किया जैन जगत पर उपकार, खोले संयम के द्वार (4)

जिस समय वि.सं. 1969 में मुनिश्री रामविजयजी की दीक्षा हुई थी, उस समय पूरे श्वेताम्बर जैन संघ में केवल 150 साधु थे। प्रभु महावीर के शासन में संभवतया इतनी कम साधु संख्या इससे पूर्व कभी नहीं रही। दीक्षा विरोधियों और तत्कालीन समाज में व्याप्त मिथ्या धारणाओं के खिलाफ आफ 79 वर्षों तक लगातार अनवरत संघर्ष व सद्प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप संवत् 2047 में इनकी संख्या बढकर 6000 को पार कर गई। दीक्षा के मार्ग को सरल बनाने में और लोगों में स्वीकार करने जैसा बनाने में सबसे बडा योगदान उनका ही रहा है। इसे उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं। एक बार उन्होंने खंभात में एक साथ 24 और अमलनेर में एक साथ 26 मुमुक्षुओं को साधु जीवन में पदार्पण कराया था। बीसवीं सदी की जैन शासन की यह सबसे महत्त्वपूर्ण घटनाएं थीं।

मुनिश्री तिलकविजयजी नाम के एक साधु के दीक्षा लेने पर उनकी सांसारिक पत्नी इतनी उत्तेजित हो गई कि उसने भरी सभा में मुनिश्री रामविजयजी के कपडे फाडने का प्रयास किया, साथ ही उसने पुलिस में दर्ज करवाई रिपोर्ट में मुनिश्री पर आरोप लगाया कि उन्होंने मुझे ओघे से पीटा। यह केस अहमदाबाद की कोर्ट में चला। जिसमें गवाही देने के लिए मुनिश्री को जाना पडता। उनकी कार्यशैली, पैरवी, तर्क और पक्ष प्रस्तुतिकरण इतना प्रभावी होता था कि संयोग से ही किसी केस में उन्हें वकील की जरूरत होती। इस केस में भी आरोपी के कटघरे में प्रवेश से पूर्व उन्होंने ओघा से जमीन का परिमार्जन करने के बाद, उसी ओघा को न्यायाधीश को बताकर उन्होंने कहा कि हम साधु इसका उपयोग कीडे-मकोडे भी न मर जाएं, इसके लिए जमीन परिमार्जन के लिए करते हैं। आप ही बताइए क्या कोई जैन साधु इसका उपयोग किसी को मारने के लिए कर सकता है? उनकी इस दलील को न्यायमूर्ति अवाक सुनते ही रह गए। न्यायमूर्ति ने देखा कि यह महिला ही अपने पति को वापस लाने के लिए झगडा करने धर्मसभा में गई, इसी ने मुनिश्री पर हमला किया और उल्टे उन्हें फंसाने के लिए यह सारा आरोप गड रही है। उन्होंने मुनिश्री को ससम्मान आरोपों से मुक्त कर दिया। ऐसी एक नहीं, अनेक घटनाएं उनके जीवन में घटित हुईं।

बालदीक्षा के प्रश्न पर तथाकथित सुधारक जैनों के आचार्यश्री के सामने आ जाने पर वातावरण काफी उग्र था। विरोधियों में जितना जुनून था, उससे दो गुनी खुमारी आचार्यश्री के संसारी भक्तों में थी। आचार्यश्री के विरोधी उन्हें मार्ग से हटाने के लिए तरह-तरह के पत्र भेजते। कुछ में खून करने की धमकी भी दी जाती थी। ऐसी स्थिति में बडे से बडा दृढ साधु भी ठंडा पड जाता। खुद आचार्यश्री के भक्त और शुभेच्छु भी उन्हें दीक्षा का आग्रह छोडने के लिए समझाते, तब वे कहते कि इनके सामने एक बार झुक जाने पर इनकी गलत बात प्रस्थापित हो जाएगी। आचार्यश्री के विरोधी उन्हें किसी भी समय समाप्त कर सकते हैं, ऐसा भय उत्पन्न होने पर उनके दादागुरु विजयदानसूरि जी काफी सजग रहते। उन्हें भीक्षा में कोई जहरीला पदार्थ न खिला दे, इसके लिए उनके वफादार शिष्य मुनिश्री चारित्रविजय जी हमेशा उनके साथ रहते थे। अपने गुरु को कोई भी आहार देने से पूर्व वे स्वयं चखते और आधा घंटा उसका प्रभाव देखने के बाद अपने गुरु को आहार देते थे।

ऐसे उग्र विरोध के वातावरण में आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी का मुम्बई में प्रवेश होने पर रास्ते में जगह-जगह काले झण्डे लगाए गए थे, मार्ग में कांच बिखेरा गया था और मकानों से उन पर पत्थरों की वर्षा की गई, फिर भी उनके हृदय में विरोधियों के प्रति मैल पैदा नहीं हुआ और विरोध से डरकर उन्होंने कभी अपने कदम पीछे नहीं हटाए।

मुम्बई में तथाकथित सुधारवादियों के बवाल, उग्र विरोध और हमला करने की संभावनाओं के मद्देनजर डर के मारे समाज के कुछ अग्रणीय कहे जाने वाले लोगों ने आचार्य भगवन् को सुरक्षा की दृष्टि से प्रवचन बंद रखने की सलाह दी तो पूज्य श्री ने निर्भीकता से कहा, ‘हमारी सुरक्षा की आप तनिक भी चिन्ता न करें। हमारी रक्षा करने वाला श्री जिनशासन जयवंत है। कोई हमारी रक्षा करेगा, इस विश्वास पर हमने यह संयम अंगीकार नहीं किया है।

इस तरह खुद अनेक तरह के संघर्षों का सामना करते हुए 20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक रहे, श्रमण संस्कृति के उद्धारक-पोषक धर्मयोद्धा, जैन शासन सिरताज व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा ने आबाल-वृद्ध सबके लिए दीक्षा का मार्ग सरल बनाया। जिसके फलस्वरूप ही उनके हाथों एक साथ 21-24-26 आदि दीक्षाएं हुईं और आज भी एकसाथ अनेक दीक्षाएं हो रही है। निश्चित तौर से कह सकते हैं कि यह चमत्कार उन्हीं का है। आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी के 121 शिष्य और 150 प्रशिष्य के साथ ही सैकडों श्रावक-श्राविका होंगे, जिन्होंने उनके उपदेश सुनकर हमेशा के लिए संसार का त्याग कर संयम जीवन स्वीकार्य किया होगा। वे 8 वर्ष के बालक से लेकर 73 वर्ष के वृद्ध को भी दीक्षा देने से पूर्व उन्हें सख्त कसौटी से गुजारते थे तथा विश्वास होने पर ही दीक्षा देते थे। कसौटी के लिए एक वर्ष अपने साथ विहार में रखते थे।

स्व. आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी इसलिए महान थे कि बडे से बडे तूफान के बीच भी वे अपनी सच्ची बात से थोडा भी पीछे नहीं हटते थे और साथ ही यह कहते कि मेरी कोई भी बात भगवान महावीर के उपदेश के विपरीत हो तो मुझे बताएं, मैं सार्वजनिक रूप से माफी मांगने के लिए तैयार हूं

जिन्होंने जन्म से लेकर तरुणावस्था तक और अपने दीक्षा-प्रसंग से लेकर अन्य भव्यात्माओं को दीक्षा देने, उन्हें संयम में दृढ करने, आर्य संस्कृति, श्रमण संस्कृति की रक्षा के लिए अलख जगाने से लेकर संयम की उत्कृष्टता बनाए रखने के लिए अंतिम श्वांस तक कई झंझावातों का सामना किया, किन्तु कभी उफ तक नहीं की; समस्त जैन जगत उन महान् आत्मा के इस उपकार को कभी नहीं भुला सकता। उन्हें शत-शत नमन्!

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